________________ योगबिंदु 147 विवेचन : उत्तमजाति के स्वर्ण से तात्पर्य अन्यधातु के मिश्रण से रहित, अत्यन्त शुद्ध स्वर्ण की भांति जो विकारों के मिश्रण से रहित शुद्ध आत्म चैतन्य में रमण करने वाले हैं; जिनकी गुण श्रेणी प्रतिपदा की चन्द्रकला के समान प्रतिदिन प्रगतिशील है; जिनका आत्मतेज दुनिया में देदीप्यमान रत्न के समान उज्जवल और प्रकाशमान है, ऐसे महान् योगी - भव्यात्माएँ महान् पुण्यानुबंधी पुण्य से गर्भ अवस्था में भी अपने अपूर्व माहात्म्य बल से जगत का महान् अभ्युदय-कल्याण करते हैं। (शास्त्रों में आता है कि) जब वे जन्म लेने वाले होते हैं तब जगत के सर्वजीवों को पूर्ण सातावेदनीय का अनुभव होता है। नरक जैसे स्थान पर भी सुन्दर सुखकारी प्रकाश होता है। जहां वे महापुरुष विचरते हैं वहाँ दुष्काल, महामारी, मरकी, परचक्र-स्वचक्र, अतिवृष्टि-अनावृष्टि, भूकंप आदि सभी उपद्रवों का अभाव होता है / इस प्रकार ये महापुरुष लोगों के कल्याण के हेतु हैं // 243 // औचित्यारम्भिणोऽक्षुद्राः, प्रेक्षावन्तः शुभाशयाः / अवन्थ्यचेष्टाः कालज्ञाः योगधर्माधिकारिणः // 244 // अर्थ : औचित्यारम्भक-उचित प्रवृत्ति करने वाला, अक्षुद्र-गम्भीर, प्रेक्षावान्-कुशाग्रबद्धि, शुभाशयी-शुभपरिणामी, अवन्ध्यचेष्टा-सफल प्रवृत्ति करनेवाला और कालज्ञ-समयज्ञ (देश-काल के जानकार), ये योगधर्म के अधिकारी हैं // 244|| विवेचन : सर्वकार्यों में उचित-अनुचित, योग्य-अयोग्य, कृत्य-अकृत्य का विवेक रखकर, जो सतत् उचित प्रवृत्ति करता है; अक्षुद्र-नीच स्वभावी, चुगलखोर, छिद्रान्वेषी-अन्य के दोषों को जो बाहर प्रकट नहीं करता, सभी व्यथाओं को - सभी विषों को जो पी जाता है जो समुद्र जैसा गम्भीर है; प्रेक्षावान्-जो सर्वकार्यों में अतिनिपुणबुद्धि से सूक्ष्म उपयोग द्वारा वस्तुतत्त्व पर विचार करने वाला है; शुभ आशय वाला-हमेशा दूसरे का भला सोचने वाला है; अवन्ध्यचेष्टा-जिनकी प्रवृत्ति हमेशा सफल होती है, अर्थात् (बुद्धि-विवेक से) खूब सोच विचार कर, वह उन्हीं कार्यों को अपने हाथ में लेता है, उसी में अपनी शक्ति खर्च करता है, जिसमें अन्त में वह सफल हो सके / जिसका परिणाम(रिजल्ट) जीरो है, परन्तु प्राथमिक दृष्टि से महान् कार्य दिखाई देने पर भी, वह उस कार्य में अपनी शक्ति नष्ट नही करता / कालज्ञ-जो समयज्ञ-समय सूचक है, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानने वाला है। उपरोक्त गुणों वाले व्यक्ति ही योगी बन सकते हैं / वे ही योग धर्म के अधिकारी है। योगी बनने वाले साधक में उपरोक्त छ: गुणों का होना नितान्त आवश्यक है / जिनमें ये गुण नहीं वे योग के अधिकारी नहीं बन सकते / योग की योग्यता मापने का यह बेरोमीटर है // 244|| यश्चात्र शिखिदृष्टान्तः, शास्त्रे प्रोक्तो महात्मभिः / स तदण्डरसादीनां, सच्छक्त्यादिप्रसाधनः // 245 // अर्थ : महापुरुषों ने शास्त्र में यहाँ जो मयूर का दृष्टान्त बताया है, वह मयूर के अण्डे में रही रसादि की सत्शक्ति का प्रकाशक है-परिचायक है // 245 / /