________________ 143 योगबिंदु मोक्ष सिद्धि में असमर्थ ही होते हैं / मूल ही नहीं तो शाखा कहां से आये ? मूलं नास्ति कुतः शाखा ? ||236 // पठितः सिद्धिदूतोऽयं, प्रत्ययो ह्यत एव हि। सिद्धिहस्तावलम्बश्च, तथाऽन्यैर्मुख्ययोगिभिः // 237 // अर्थ : इसलिये अन्य मुख्ययोगियों ने भी आत्मादि प्रत्यय को ही सिद्धि का दूत और सिद्धि का हस्तावलम्बन कहा है // 237|| विवेचन : आत्मा, गुरु तथा धर्म स्वरूप को जानने वाला, उसमें पूर्ण श्रद्धा रखने वाला योगी मोक्ष को पा लेता है / इसलिये इन तीनों पर जो प्रत्यय-विश्वास है उसे सिद्धि की दूती कहा हैं क्योंकि आत्मादि प्रत्यय मोक्ष का उपादान कारण हैं, मोक्ष का साक्षात् हेतु है / शास्त्रों में भी कहा है : दसणभटो भट्ठो, दंसणभस्स नत्थि निव्वाणं / चरणरहिया सिझंति, दंसणेन बिना व सिज्जन्ति // जो श्रद्धा से भ्रष्ट है, वह सर्वशुभगति से भ्रष्ट है / दर्शनभ्रष्ट को निर्वाण संभव नहीं है। क्योंकि कभी-कभी चारित्र बिना भी जीव मुक्त हो सकता है परन्तु चारित्रवान् होने पर भी श्रद्धा से भ्रष्ट है तो उसको मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती / इसलिये आत्मादि प्रत्यय को मुक्तिरूपी सिद्धि की दूती कहा है और हस्तावलम्बन कहा है / मोक्षप्राप्ति में आत्मादि प्रत्यय उपादान कारण होने से जैसे महल पर चढ़ने के लिये सीढ़ी का अवलम्बन लेना पड़ता है, मोक्षरूपी प्रासाद पर चढ़ने के लिये आत्मादि की श्रद्धा सीढ़ीरूप है अथवा चारित्र महल पर चढ़ने के लिये हाथ से पकड़े हुये रस्से के समान है अथवा मोक्षमार्ग में गमन करने वाले को हाथ का सहारा देकर, उसे मोक्ष तक ले जाने वाला है / अन्य मुख्ययोगियों का भी यही अभिप्रायः है / आत्मश्रद्धा, सद्गुण और धर्म पर सच्ची श्रद्धा ही मोक्ष की ओर ले जाने वाली है। आनंदघनजीने १४वें अनन्तनाथ भगवान के स्तवन में सुन्दर गाया हैं : देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे, किम रहे शुद्ध श्रद्धा न आणो; शुद्ध श्रद्धान विषु सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणो। धार तलवारनी सोह्यली दोह्यली० // 5 // इस तरह शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व क्रिया करने पर भी मुक्ति संभव नहीं है // 237 //