________________ योगबिंदु 141 पतनकारी शक्ति व्यर्थ होने से मोक्ष की ओर नहीं ले जाती / इसलिये ऐसी चमत्कारी सिद्धि को हम सिद्धि नहीं मानते। __ आशय यह है कि जो सिद्धि आत्मगुणों की प्राप्ति में हेतुभूत बने और एकान्त फल देने वाली बने वही सिद्धि यहाँ विवक्षित हैं / आत्मा का पतन करनेवाली सिद्धियां यहाँ विवक्षित नहीं है // 233 // सिद्ध्यन्तरं न संधत्ते, या साऽवश्यं पतत्यतः / तच्छक्त्याऽप्यनुविद्वैव, पातोऽसौ तत्त्वतो मतः // 234 // अर्थ : जो सिद्धि सिद्धयन्तर (अन्यसिद्धि) को जोड़ती नहीं, वह अवश्य गिर जाती है। अतः पातशक्ति से अनुविद्ध होने से वस्तुत: वह (सिद्धि) पात ही कही जाती है // 234 / / विवेचन : सिद्धि-आत्मा की शक्ति विशेष / यदि अन्तिम साध्य-मोक्ष पर्यन्त सिद्धिक्रम उत्तरोत्तर चले तो पूर्व-पूर्व सिद्धि-सिद्धि कही जाती है, परन्तु जो सिद्धि आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने वाली अन्य सिद्धियों को जन्म नहीं देती, वह तो पतन ही है / यद्यपि वह साक्षात पतन नहीं करवाती फिर भी उसमें पतन होने की सम्भावना है, पतन के कारण उसमें विद्यमान हैं, इसीलिये ज्ञानी पुरुषों ने इस को पातशक्ति से अनुविद्ध कहा है। अर्थात् पतन के कारणों की शक्ति से युक्त होने से ज्ञानियों की दृष्टि में वह पतन ही है। जैसे वर्तमान में पुत्र-पौत्रादि न होने पर भी भावीपुत्र की अपेक्षा से वह पिता कहा जाता है। उसी प्रकार जो व्यक्ति वर्तमान काल में प्राप्त सिद्धि से दुष्ट आचरण में नहीं पड़ा परन्तु भविष्य में उससे पतन होने की सम्भावना है, इसलिये उसे पतन ही कहा है | यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि से प्राप्त सिद्धियाँ जो पतन के कारणों से रहित हो तो वे प्राप्त करने योग्य हैं / परन्तु जिसमें पतन होना सम्भव है और जिन कारणों से पतन सम्भव हो, उन प्रमाद, अहंकार, क्रोध, राग, द्वेष आदि कारणों को छोड़ देना चाहिये। सिद्धियाँ तो ऐसी भूल-भूलैया है कि उसमें पड़कर मनुष्य भटक जाता है। बड़े-बड़े ऋषिमुनि-तपस्वी उसमें भूल खा जाते हैं / इनसे अनासक्त रहकर, केवल आत्मशुद्धि करने वाले जगत में विरले ही होते हैं / इसीलिये महापुरुषोंने इनको पतन का कारण समझकर, इन्हें हेय बताया है। वास्तविक सिद्धि तो वह है, जो आत्मा को उत्तरोत्तर मोक्ष की ओर ले जाय // 234 / / सिद्धयन्तराङ्गसंयोगात्, साध्वी चैकान्तिकी भृशम् / आत्मादिप्रत्ययोपेता तदेषा नियमेन तु // 235 // __अर्थ : सिद्ध्यन्तर के कारणों का संयोग होने से निश्चित ही यह अत्यन्त शुद्धतावाली, एकान्तिक सिद्धि, आत्मादि के प्रत्यय से युक्त है // 235 / /