________________ 140 योगबिंदु मोक्ष के लिये कुछ भी प्रयत्न कर नहीं सकती / लेकिन जब आत्मा भवाभिनन्दित्व का त्याग करके, मोक्ष का अभिलाषी होती है, तभी वह मोक्षयोग्य सदनुष्ठान करना प्रारम्भ करती है। ऐसी शुभप्रवृत्ति उसके अन्दर अन्तरात्मभाव को प्रकट करती है। जब जीव को अपने आत्म स्वरूप को जानने की अभिलाषा पैदा होती है, वह सद्गुरु की उपासना करता है / सद्गुरु भी उसे सुपात्र समझकर, आत्मस्वरूप को जानने का मार्ग बताते हैं, उसे आत्मस्वरूप का अनुभव करवाते हैं / जब तत्त्व की प्राप्ति के लिये अन्तरात्मा में तीव्र भावना प्रकट होती है तो सम, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य और अनुकम्पा रूप आत्मा के चिह्न प्रकट होते हैं / अर्थात् शान्ति, वैराग्य, भवभीरुत्व, श्रद्धा और करुणा से उसका जीवन सौरभ चारों दिशाओं में महक उठता है। इस प्रकार वस्तु स्वरूप की सिद्धि होती है / सर्व प्रथम आत्मस्वरूप को जानने की अभिलाषा, फिर उसके द्वारा सद्गुरु का उपदेश श्रवण और पश्चात् तदनुसार वैसे चिह्नों का प्रकट होना वस्तु की सिद्धि ही है // 232 // सिद्धयन्तरस्य सद्बीजं, या सा सिद्धिरिहोच्यते / ऐकान्तिक्यन्यथा नैव, पातशक्त्यनुवेधतः // 233 // अर्थ : जो सिद्धि अन्यसिद्धि का उपादान अथवा निमित्त कारण बने वही सिद्धि यहाँ विवक्षित है; वह एकान्तफल देने वाली होनी चाहिये अन्यथा जिस (सिद्धि) से आत्मा का पतन हो, वह (सिद्धि) यहाँ विवक्षित नहीं है // 233 // विवेचन : जो सिद्धि अन्यसिद्धि का उपादान कारण या निमित्त कारण बने वही सिद्धि यहाँ अपेक्षित है अर्थात् जिससे आत्मा के गुणों का उत्तरोत्तर विकास हो; आत्मा की उत्तरोत्तर शुद्धिनिर्मलता हो उसे ही यहाँ योगशास्त्र में सिद्धि कहा है / परन्तु जो बाह्य चमत्कारी सिद्धिया होती है; वे आत्मा के पतन का कारण बनती हैं, आत्मा का सत्यभान भुला देती है। उसे पथभ्रष्ट कर देती हैं / अत: ऐसी चमत्कारी सिद्धि को यहाँ सिद्धि नहीं कहा गया है / जो सिद्धि भौतिकवाद से दूर ले जाकर, आत्मा को उसके आत्मस्वरूप में स्थिर करे वही सच्ची सिद्धि है / टीकाकार ने इसे इस तरह से कहा है :- घर, प्रासाद या किसी भवन निर्माण के पहले नींव में हड्डियाँ आदि शल्य अगर दूर न किया जाय तो महान् परिश्रम से तैयार किये हुये ऐसे भवन में रहने वाले पुण्योदय को नहीं पा सकते, अर्थात् उनका पुण्य नष्ट हो जाता है। क्योंकि अशुद्ध हड्डियां आदि नींव में रहने के कारण भवन अकस्मात गिर जाने से हताहत आदि नुकसान होता है / इसी प्रकार जो सिद्धियाँ मिथ्या अभिनिवेश वाली कदाग्रह वाली न हो; कुशंकायुक्त न हो; भयंकर पाप वाली न हो, मोक्षरूप फल को नाश करनेवाली न हो और मोक्षफल पर्यन्त की गुणश्रेणी में उपकारक हो, वही वास्तविक सिद्धि है। परन्तु मिथ्याभिनिवेशयुक्त, पौद्गलिकभोगों की वासना से युक्त तथा कषाययुक्त हो वह शक्ति तो आत्मा को उसके गुणस्थानक से गिराकर चार गति में भ्रमण करवाने वाली होती है / ऐसी