________________ त योगबिंदु 139 ___ अर्थ : जगद्वन्दनीय महापुरुषों ने शास्त्रभक्ति को ही उत्तमोत्तम मुक्तिदूती कहा है, इसलिये शास्त्र में भक्ति रखना यथार्थ न्यायपुरस्सर है क्योंकि वह भक्ति ही (जीवों को) मुक्ति के समीप ले जाती है // 230 // विवेचन : जगद्वन्दनीय वीतराग परमात्मा ने मोक्ष के साथ आत्मा का मिलन करवाने में शास्त्रभक्ति को महान् समर्थ दूती की उपमा दी है अर्थात् शास्त्र के प्रति भक्ति, आदर, बहुमान रूप पूज्यबुद्धि मनुष्य को मोक्ष के समीप ले जाती है / किसी की शक्ति या सामर्थ्य नहीं है कि वह शास्त्रभक्ति के बिना मोक्ष को प्राप्त कर सके / इसलिये शास्त्र और शास्त्रोपदेष्टा गुरुओं के प्रति पूज्यभाव रखना, उनका आदर सत्कार करना, सेवाभक्ति करना न्याययुक्त हैं / जो शीघ्र ही, अल्पकाल में मुक्त होने वाले हैं, उनके अन्दर शास्त्र के प्रति सच्ची भक्ति प्रकट होती है। परन्तु जो दीर्घसंसारी है उन्हें शास्त्र, गुरु और देव की भक्ति प्राप्त नहीं होती / शास्त्रभक्ति द्वारा जीवात्मा विवेक प्राप्त करता है और विवेकज्ञान से सर्वकर्म मलों से रहित पूर्णपवित्र होकर, शीघ्र ही मोक्षानन्द को प्राप्त करता है // 230 // तथाऽऽत्मगुरुलिङ्गानि, प्रत्ययस्त्रिविधो मतः / सर्वत्र सदनुष्टाने, योगमार्गे विशेषतः // 231 // अर्थ : सदनुष्ठान वाले योग मार्ग में सर्वत्र आत्मा, गुरु और लिंगभेद से प्रत्यय विशेषतः तीन प्रकार का माना है / / 231 // विवेचन : अब ग्रंथकार तृतीय अंग सम्यक्प्रत्ययवृत्ति को कहते हैं "प्रतीयते अर्थोऽस्माद् इति प्रत्ययः" जिससे अर्थ की प्रतीति हो वह प्रत्यय अर्थात् ज्ञान / वह ज्ञान आत्मा, गुरु और लिंगभेद से विशेष प्रकार से तीन प्रकार का बताया है। सदनुष्ठानवाली अर्थात् सफलप्रवृत्तिवाली ही जिसमें क्रिया है ऐसे योग के शास्त्र में तीन प्रकार मान्य है // 231 / / आत्मा तदभिलाषी स्याद्, गुरुराह तदेव तु / तल्लिङ्गोपनिपातश्च, संपूर्ण सिद्धिसाधनम् // 232 // अर्थ : आत्मा स्वरूप को जानने की अभिलाषा करे, गुरु उसीका (आत्मस्वरूप में आने का मार्ग बताये) उपदेश दे और (अभिलषित सिद्धि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार करने) आत्मा के चिह्नों का समीप आना संपूर्ण वस्तु की सिद्धि है // 232 / / विवेचन : ऊपर तीन प्रकार का ज्ञान बताया है आत्मा, गुरु और लिंग-चिह्न इन तीनों के ज्ञानबल से ही वस्तु स्वरूप की सिद्धि होती है / जब तक आत्मा, धन, कुटुम्ब, शरीर आदि बाह्य पौदगलिक सुखों को ही परम सुख मानती है तब तक वह बहिरात्मा है। ऐसी स्थिति में जीवात्मा