________________ 138 योगबिंदु किसी प्रकार का भी 'मैं राजा, सेठ या ज्ञानी हूँ' इस प्रकार का अभिमान नहीं लाता; नम्र रहता है, उस श्रद्धालु आत्मा की धर्मक्रिया, देवपूजा, गुरुभक्ति, सामयिक, प्रतिक्रमण, पौषध, तप, जप आदि उत्तमोत्तम कही है क्योंकि जिस धर्मक्रिया में श्रद्धा है, प्रेम है, नम्रता है, गुणानुराग है, विवेक है उसमें पुण्यानुबंधी पुण्य की वृद्धि होती है। ऐसी धर्म क्रिया करने वाले को अचिन्त्यशक्ति उपलब्ध होती है और वह शास्त्राधीन रहकर, यम-नियम परायण रहकर, अनादि कालीन कर्मबंधनों को काट कर, निर्जरा करता हुआ, शुक्लध्यान के योग से सच्चिदानन्द सुख का उपभोक्ता बनता है / इसलिये ऐसी धर्मक्रिया उत्तमोत्तम फल को देने वाली है, सच्चा फल देने वाली है / / 227 // यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः / उन्मत्तगुणतुल्यत्वान्न प्रशंसास्पदं सताम् // 228 // अर्थ : जिसको शास्त्र के प्रति आदर नहीं; उसके श्रद्धादि गुण उन्मत्त के गुणतुल्य होने से सज्जनों के लिये प्रशंसनीय नहीं है // 228 // विवेचन : जिसको वीतराग प्ररूपित शास्त्रों के प्रति श्रद्धा, आदर और बहुमानरूप पूज्यबुद्धि नहीं है, उसके श्रद्धा, संवेग (वैराग्य), निर्वेद (भवभीति), तप, जप आदि धर्मानुष्ठान आदि बाह्यगुणों को विवेकी महापुरुषों ने सराहा नहीं क्योंकि उसकी तुलना-उपमा शराबी अथवा किसी भी नशे में चूर उन्मत्त मनुष्य के पुरुषार्थ-शौर्य, उदारता आदि बकवास के साथ दी है। जैसे शराबी और उन्मत्त व्यक्ति के गुण किसी काम के नहीं / ऐसे ही शास्त्र में पूज्य बुद्धि बिना सर्व बाह्यक्रिया स्वछन्दी है, व्यर्थ है // 228 // मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम् / अंतःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः // 229 // अर्थ : जैसे मलीन वस्त्र को जल अत्यन्त स्वच्छ बना देता है, उसी प्रकार अन्तःकरणरूपी रत्न को शास्त्र स्वच्छ बनाता है / ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है // 229 // विवेचन : जैसे साबुन और पानी अत्यन्त मलीन वस्त्र को भी स्वच्छ-विशुद्ध बना देते हैं; उसी प्रकार अनादि कालीन कर्ममल से मलिन अन्तःकरण को शास्त्रविहित अनुष्ठान पवित्र बना देते हैं, ऐसा आप्त पुरुषों का कहना है / इसलिये शास्त्र के प्रति तथा शास्त्रप्रतिपादन करने वाले गीतार्थ महर्षियों के प्रति मन में पूज्यबुद्धि-बहुमान रखना चाहिये // 229 / / शास्त्रे भक्तिर्जगद्वन्द्यैर्मुक्तेर्दूती परोदिता। अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्त्यासन्नभावतः // 230 //