________________ योगबिंदु जो शास्त्र जगत के जीवों को उपदेश के बल से पापरहित बनाते हैं, और जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि, उपाधि से रक्षा करे, ऐसा सामर्थ्य जिसमें हैं, वही शास्त्र है / अनेकान्त दृष्टि युक्त सर्वज्ञ वीतराग प्रतिपादित शास्त्र ही असल में शास्त्र है // 225 // न यस्य भक्तिरेतस्मिंस्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि / अन्धप्रेक्षाक्रियातुल्या, कर्मदोषादसत्फला // 226 // अर्थ : जिसकी शास्त्र में भक्ति नहीं, उसकी धर्मक्रिया भी अन्ध की प्रेक्षण क्रिया के समान कर्मदोष से असत्फल देनेवाली होती है // 226 // विवेचन : जिस धर्मार्थी को शास्त्र में तथा गीतार्थ गुरुओं के प्रति श्रद्धा, भक्ति, बहुमान और आदर नहीं, उसकी सर्व धर्मक्रिया-देववन्दन, गुरुवन्दन, सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, तप, जप, आतापना, केशलोच आदि वास्तविक फल नहीं दे सकती / लोक कहावत भी है कि "अंधी पीसे, कुत्ता खाय" / उसे परिश्रम का फल - गेहूं का आटा नहीं मिलता, उसी प्रकार विवेकहीन क्रिया का फल जो मिलना चाहिये नहीं मिलता, क्योंकि मूल में अज्ञानता है और मिथ्यात्व है। जिसे आंखों से दिखता नहीं वह चक्की के अन्दर गेहूं डालकर, दलता-पीसता है और कुत्ता आकर खाता है, उसे उसका फल नहीं मिलता और गेहूँ व्यर्थ जाता है। ऐसे ही एक, सूरदास का दृष्टान्त है। कोई अन्धा नगर प्रवेश के लिये गमन क्रिया करता है परन्तु आंख न होने के कारण नगर का द्वार उसे उपलब्ध नहीं हो पाता और नगर के चारों ओर व्यर्थ ही चक्कर काटता है। उसी प्रकार सम्यक् ज्ञान और सम्यक् श्रद्धा प्रीति बिना बाह्यक्रिया, मोहावरणादि दोषों के कारण, मोक्ष के परमानन्दरूप सत्फल को नहीं देती परन्तु कायक्लेश होने से संसार भ्रमणरूप अनिष्ट फल को ही देती है / नारायण श्री कृष्ण के परमभक्त वीरा सालवी का दृष्टान्त आता है। वीरा सालवी ने श्री कृष्ण देव के साथ श्री नेमिनाथ-भगवान को काया से तो वन्दन किया, परन्तु श्रद्धा भक्ति के बिना। इसलिये वह इस कायक्लेश से पुण्यरूप फल को नहीं पा सका / ज्ञान एवं विवेक हीन क्रिया वास्तविक फल नहीं दे सकती-मोक्षरूपी जो फल जिस क्रिया से मिलने वाला हो वह नहीं मिलता // 226 / / यः श्राद्धो मन्यते मान्यानहङ्कारविवर्जितः / गुणरागी महाभागस्तस्य धर्मक्रिया परा // 227 // अर्थ : अहंकारवर्जित अर्थात् नम्रभाव से जो भाग्यशाली श्रद्धालु श्रावक मान्यपुरुषों को मान देता है; गुणानुराग रखता है; उस भाग्यशाली की धर्म क्रिया उत्तमोत्तम है / / 227 // विवेचन : जो भाग्यशाली (आत्मा) मुमुक्षु गीतार्थ माननीय महापुरुषों को मान देता है तथा उनके वचनों का आदर सत्कार करता है; गुणीजनों के प्रति गुणानुराग रखता है; और मन में