________________ 136 योगबिंदु परिग्रह इकठ्ठा करना, व्यभिचार, लूट-पाट आदि अनेक महान् अनर्थों को रोकने के लिये, उपकारी पूज्य अरिहन्त, गणधर एवं आचार्यों ने शास्त्ररचना करके, हमारे ऊपर महान् उपकार किया है। इसलिये धर्म के अभिलाषी, मोक्षाभिलाषी आत्माओं को, शास्त्र को जानने का और उसकी आज्ञानुसार चलने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिये / जो शास्त्र में आदर और भक्ति करने वाला है, उसका उत्साह बढ़ाना, उसकी प्रशंसा करना, सत्कार करना हमेशा श्लाघास्पद है। धर्मी-धर्माथी और शास्त्रादर-परायण प्रशंनीय हैं क्योंकि मोह, माया, अज्ञान, मिथ्यात्वरूपी अन्धकार से आवृत इस जगत में प्रायः प्राणी मोह की भूल भूलैया में ऐसा भटक जाता है कि अनेक दुःखों से आकुलव्याकुल हो जाता है / वहाँ से निकलने का प्रयत्न करने पर भी विवेकरूपी प्रकाश न मिलने पर, उसी में दुःखी होता है, परेशान रहता है / न करने योग्य कार्य करता है और करने योग्य नहीं करता। कृत्याकृत्यविवेक से शून्य होता है। उसके विवेक को जगाने के लिये, मोहान्धकार को दूर करने के लिये शास्त्र को दीपक समान कहा है / घोर अन्धकार में भटकते को जैसे दीपक मिलने पर परम शान्ति का अनुभव होता है, सर्व वस्तु को वह जान लेता है। इसी प्रकार शास्त्रज्ञान से मनुष्य पारमार्थिक ज्ञान को जगत के स्वरूप को यथार्थ जानकर, परमसुख मोक्ष की ओर प्रवृत्त होता है।॥२२४॥ पापामयौषधं शास्त्रं, शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् / चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्रं, शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् // 225 // अर्थ : शास्त्र पापरूपी व्याधि के लिये औषध है; शास्त्र पुण्य का हेतु है; शास्त्र सर्वदर्शीचक्षु है; शास्त्र सर्व इच्छित वस्तु को सिद्ध करने का साधन है // 225 / / विवेचन : जैसे औषध से रोग नष्ट होते हैं, ऐसे ही शास्त्राभ्यास करने से सद्विवेक पैदा होता है और विवेक सर्वपापों का नाश करता है। शास्त्र का अभ्यास करने से आत्मा पवित्र बनती है अर्थात् अध्यवसाय शुद्ध होने से पुण्यप्राप्ति होती है। पारमार्थिक पदार्थों की गवेषणा करने में शास्त्र ही परम चक्षु है। शास्त्राभ्यास करने से ही मनुष्य जीव, अजीव, पाप-पुण्य, आश्रव-संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष आदि तत्त्वों को और संसार के स्वरूप को जान सकता है। सबसे अधिक इष्ट वस्तु तो मनुष्य के लिये मोक्ष ही है, तो शास्त्र से मोक्ष भी सिद्ध है। शास्त्र सर्व इच्छित वस्तु को सिद्ध करने का उपाय है / शास्त्र किसे कहते है : "सद्भावशासनाद् दुःख-त्राणायोच्यते तच्च जैनम्" जो सत्य पदार्थों के उपदेश से जीवों को दुःख से बचाये वह ही जैनशास्त्ररूपी शासन है। शासनसामर्थ्येन तु संत्राणबलेन चानवधेत / युक्तं यत्तच्छास्त्रं तच्चयैतत्सर्वविद्ववचम् //