________________ 134 योगबिंदु विवेचन : तीसरे अनुष्ठान में सर्व प्रवृत्ति में और जीवन व्यवहार में यश-अपयश, धर्मअधर्म, पुण्य-पाप, कृत्य-अकृत्य, पेय-अपेय, और हेय-उपादेय के गुण-दोष का विवेक जागृत होता है। अमुक कार्य करते हुये आत्मा पाप के भार से भारी होगी ? या कर्मबंधन से मुक्त होगी ? ऐसी विचारणा-विवेक-जागृति आती है / इस प्रकार सर्वकार्यों में विवेकपुरस्सर प्रवृत्ति का होना आत्मा को कोई जैसा-तैसा लाभ नहीं दिलवाती बल्कि वह महान लाभदायक है। अति उत्तमफलमोक्ष को देने वाला है। ऐसा विवेक सदैव-हमेशा रहता है वही आत्मा का महान् उदय करने वाला है, अर्थात् मोक्षमार्ग की ओर ले जाने वाला है / (निःसन्देह विवेक पुरस्सर सर्व कार्य हमेशा शुभ फल को ही देते हैं। विवेकजन्य प्रवृत्ति हमेशा स्व और पर के कल्याण के लिये ही होती है) // 220 // परलोकविधौ शास्त्रात्, प्रायो नान्यदपेक्षते / आसन्नभव्यो मतिमान्, श्रद्धाधनसमन्वितः // 221 // अर्थ : आसन्नभवी, श्रद्धारूपी धन से समृद्ध, बुद्धिमान व्यक्ति परलोक विचारणा में प्रायः शास्त्र के सिवाय अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखता // 221 // विवेचन : आसन्न काल में ही मोक्ष में जाने वाला (टीकाकार ने 'श्रद्धा' का अर्थ 'अनुष्ठान की अभिलाषा' किया है) ऐसे श्रद्धारूपी धन से समृद्ध मार्गानुसारी प्राज्ञ व्यक्ति को परलोकादि व्यवस्था स्वीकारने में शास्त्र के सिवाय अन्य प्रमाण, लोकरुढ़ि आदि की अपेक्षा-जरूरत नहीं रहती। वह परलोकनिश्चय में कुतर्क का आश्रय न लेकर, शास्त्र का ही आश्रय लेता हैं // 221 // उपदेशं विनाऽप्यर्थकामौ प्रति पटुर्जनः / धर्मस्तु न विना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः // 222 // अर्थ : अर्थ और काम में मनुष्य, बिना उपदेश के भी कुशल-प्रवीण हो जाता है, परन्तु धर्म में शास्त्र के बिना नहीं होता, इसलिये शास्त्र में आदर-प्रयत्न करना हितकारक है // 222 // विवेचन : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं / अर्थ और काम में मनुष्य को किसी दूसरे के उपदेश या शिक्षा की जरूरत नहीं होती। अनादि कालीन संस्कारों से तथा लोकव्यवहार से देखादेखी ही मनुष्य उसमें कुशल हो जाता है। काम का अर्थ काम्य विषयखाना-पीना, सोना-उठना, घूमना-फिरना, नाचना-कूदना, सुन्दरवस्त्र पहनना इत्यादि पांच इन्द्रियों के सभी काम्य विषयों में मनुष्य अनादि कालीन संस्कारों से आकृष्ट होता है और उसमें प्रवीण हो जाता है। उसमें उपदेश की जरुरत नहीं रहती / परन्तु धर्म ही एक ऐसी वस्तु है, जिसमें शास्त्र की जरुरत रहती है। मोह, माया, प्रमाद में डूबे हुये जीवों को जब तक गुरु के उपदेशरूपी शास्त्र का यथार्थ बोध प्राप्त न हो तब तक धर्मरूपी मोक्षमार्ग का ज्ञान उसे प्राप्त नहीं हो सकता / इसलिये ऐसे उपदेश और शास्त्र में आदर सहित प्रयत्न करना कल्याणकारक है // 222 //