________________ योगबिंदु 133 महापुरुषों ने इसे स्वरूप शुद्ध लेकिन बाह्य अनुष्ठान कहा है, क्योंकि वह एकान्त रूप से मोक्ष का हेतु नहीं है। बाहर से सुन्दर क्रिया करने पर भी सम्यक् देव, गुरु, धर्म की श्रद्धा का उसमें अभाव होता है / शम, संवेद, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता का अभाव होता है / क्रोध, मान, माया, लोभ, काम वासना और इन्द्रियजन्य भोगों की लालसा होती है / मन इन दोषों से कलुषित रहता है इसलिये उनके शुभ आचार और क्रिया आदि बाहर से ही होते हैं / अन्दर आत्मा को वह क्रिया स्पर्शी नहीं होती / जैसे कोई सुन्दर नगरी हो उसके कोट, खाई, किले आदि नगर की रचना बहुत ही सुन्दर और मजबूत हो / कभी कोट-किले मजबूत होने से बाह्य शत्रुओं से नगर निवासियों की रक्षा हो सकती है लेकिन उस नगरी के अन्दर रहने वाला राजा-मंत्री आदि स्वयं ही दुष्ट, व्यभिचारी, लुटेरे हो तो क्या उस नगरी के निवासी कभी सुख-शान्ति का अनुभव कर सकते हैं ? क्या वे जीवन का आनन्द ले सकते हैं ? इसी प्रकार बाहर से सुन्दर निर्दोष क्रिया करने पर भी जब तक आन्तर मलीन है वह साधक सुखशान्ति और मोक्ष का अनुभव नहीं कर सकता केवल दैहिक अनुष्ठानों से जीवात्मा कुराजा से अधिष्ठित नगर की भांति गुणवृद्धि पाने में असमर्थ होता है क्योंकि उसका विवेक जागृत नहीं // 218 // तृतीयाद् दोषविगमः, सानुबन्धो नियोगतः / गृहाद्यभूमिकापाततुल्यः कैश्चिदुदाहृतः // 219 // अर्थ : तीसरे सानुबंध अनुष्ठान से निश्चय ही दोषों का (अत्यन्त) नाश होता है / कितने ही इसे घर की प्रथमभूमि (की नींव) के आरम्भ तुल्य मानते हैं // 219 // विवेचन : तीसरे अनुबंध अनुष्ठान से दोष-विकार सब नष्ट हो जाते है और हृदय शुद्ध हो जाता है क्योंकि इस अनुष्ठान की संपूर्ण क्रिया सम्यक् ज्ञान और श्रद्धा मूलक होती है। कुछ विद्वान इसे (इस अनुष्ठान को) घर की मजबूत नींव तुल्य मानते हैं / जैसे नया घर या मन्दिर बनाना हो तो इञ्जिनियर पहले भूमि परीक्षा करता है। सर्वप्रथम भूमिशुद्धि देखी जाती है ताकि उसके ऊपर खड़ी होने वाली बिल्डिंग भविष्य में गिर न जाय / फिर उसकी नींव खोदी जाती है। शुद्धभूमि की मजबूत नींव पर ही सैंकड़ों वर्षों तक घर या मन्दिर टिक सकता है। इसी प्रकार कुछ विद्वानों ने अनुबंध अनुष्ठान को योगरूपी प्रासाद को खड़ा करने के लिये इसे मजबूत नींव के समान समझा है। क्योंकि हृदय की शुद्धि पर ही मोक्षरूपी प्रासाद दृढ़ता पूर्वक खड़ा हो सकता है। हृदय शुद्धि मोक्ष की नींव है // 219 // एतद्ध्युग्रफलदं, गुरुलाघवचिन्तया / अतः प्रवृत्तिः सर्वैव, सदैव हि महोदया // 220 // अर्थ : (गुण-दोष का) गुरु-लघु विवेक होने से अति उत्तम फल देने वाला यह अनुष्ठान है / इससे होने वाली सर्वप्रवृत्ति सदैव महान उदय करने वाली होती है // 220 //