________________ 132 योगबिंदु राग और द्वेष, वे सर्वथा नष्ट नहीं होते, अन्दर दबे पड़े रहते हैं / कुण्ड के मलिन जल की भाँति जो कि ऊपर से निर्मल दिखाई देता है, लेकिन जरा सा हिलाते ही कचरा तुरन्त ऊपर आ जाता है। ऐसे ही निमित्तकारण मिलते ही उसके दोष बाहर आते हैं / टीकाकार ने इसी वस्तु को मण्डूकचूर्ण का दृष्टान्त देकर समझाया है। मण्डूकचूर्ण में (मण्डूक के शरीर का चूर्ण) जैसे मण्डूक दिखाई नहीं देता लेकिन जब उसे पानी और वायु का संयोग मिलता है, तो उसमें से अनेक मण्डूक प्रकट होते हैं, क्योंकि उपादान रूप बीज वहाँ विद्यमान है / इसी प्रकार कषाय के बीज राग और द्वेष जब तक सर्वथा नष्ट नहीं हो जाते, तब तक जीव नये-नये कर्म राग-द्वेष के उदय से बांधता रहता है / अगर मण्डूकचूर्ण को अग्नि में भस्म कर दिया जाय तो उसका बीज सर्वथा नष्ट हो जाता है। फिर उसमें से मण्डूक पैदा नहीं हो सकते / इसी प्रकार राग-द्वेष जब मूल से सर्वथा नष्ट हो जाते हैं फिर जीव जन्ममरण शील भयंकर इस संसार में दुबारा जन्म नहीं लेता, संसार से मुक्त हो जाता है। परन्तु द्वितीय अनुष्ठान में दोष सर्वथा नष्ट नहीं होते क्योंकि उसमें जीव को गुरुलघु चिन्ता अर्थात् पूज्य-पूजक भाव, गुरुशिष्य भाव रूप अथवा गुण दोष का विवेक नहीं होता इसलिये यह अनुष्ठान भी साक्षात् मोक्ष प्राप्ति का हेतु नहीं, क्योंकि विवेक-विचार अल्प है और उसमें शरीर और वचन की ही प्रधानता है / मानसिक शुद्धि का लक्ष्य अल्प शरीर और वचन द्वारा ही किया की प्रधानता है / कहा भी है: कायकिरिआए दोसा, खविया मण्डुक्क चण्णतुलत्ति / सव्वावणए ते पुण, नेया तच्छारसारिच्छा // 1 // मात्र काया, शरीर और वचन से, जो क्रिया अनुष्ठान किये जाते हैं / वे पुण्यबंध कराते हैं और कुछ अंशों में कर्मों की निर्जरा भी करते हैं परन्तु ऐसे स्वरूप अनुष्ठानों से सर्वथा दोष (कर्म) क्षीण नहीं होते / क्योंकि यह विवेकशून्य केवल दैहिक क्रिया मात्र है // 21 // अत एवेदमार्याणां बाह्यमन्तर्मलीमसम् / कुराजपुरसच्छालयत्नकल्पं व्यवस्थितम् // 218 // ___ अर्थ : इसलिये (आन्तर विचार से शून्य होने के कारण) आचार्य इस आन्तर मलीन अनुष्ठान को बाहर से सुन्दर, परन्तु अन्दर से दुष्ट राजा से अधिष्ठित नगर जैसा मानते हैं // 218 // विवेचन : आन्तर विचार-विवेक से शून्य, केवल कायप्रधान, यह अनुष्ठान है। स्वरूपशुद्ध अनुष्ठान करने वालों के बाह्य आचरण - बाह्य आचार देखने में बहुत सुन्दर और उत्तम दिखाई देते हैं / बाहर से तो आर्यधर्मों के सभी आचार-विचार बिल्कुल अणिशुद्ध पालते हैं लेकिन अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता / अध्यवसाय अशुभ होते हैं / बाहर से दोषरहित दिखाई देता है, इसलिये