________________ योगबिंदु 131 विवेचन : प्रथम विषयशुद्ध अनुष्ठान से मोक्ष प्रतिबंधक दोषों का अभाव नहीं होता अर्थात् हृदय दोषयुक्त ही रहता है, दोष जाते नहीं है क्योंकि इस अनुष्ठान में तमोगुण-अज्ञानता अधिक होती है / कितने ही ऐसा भी कहते हैं कि इस अनुष्ठान से यद्यपि मोक्षप्रतिबंधकदोष जाते नहीं तथापि जैसा अनुष्ठान वैसा उत्तरोत्तर उत्तम जाति, कुल, खानदान में जन्म होने की सम्भावना रहती है अर्थात् पतनादि से यद्यपि दोषों से वह मुक्त नहीं होता फिर भी उसके शुभ संकल्प, शुभ लेश्या अनुसार उत्तरोत्तर उत्तम जन्म की सम्भावना होती है। इस प्रकार कालान्तर में मोक्ष की ओर ले जाने वाला होने से इसको शुद्ध अनुष्ठान में स्थान दिया गया है // 215 // मुक्ताविच्छिाऽपि यच्छ्लाध्या, तमःक्षयकरी मता / तस्याः समन्तभद्रत्वादनिदर्शनमित्यदः // 216 // अर्थ : जिनको जितने भी अंश में मुक्ति की इच्छा हो वह श्लाघनीय है, क्योंकि वह इच्छा अज्ञान रूप अंधकार को कालांतर में नाश करने वाली है। हालांकि वह इच्छा कल्याणकारी है पर वह मोक्ष के साश्रात रूप तो नहीं ही है // 216 // मुक्ति की (आंशिक) इच्छा भी श्लाघनीय है क्योंकि (वह) तमोगुण (मोहावरण) का नाश करने वाली है; हालांकि सर्वकल्याणकारी मोक्ष की इच्छा, सर्व इच्छाओं से अत्यन्त भिन्न है। संसार में इसका दृष्टान्त मिलना असम्भव है, क्योंकि जगत के पदार्थों की इच्छा सावधकारी, पापमय है ऋ वह भोग्यविषयों को प्राप्त करने की प्रवृत्ति कराती है / जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। जैसे घर का कारण मिट्टी है; जगत का कारण विषयों की इच्छा है और वह पापमय है; परन्तु मोक्ष की इच्छा तो पाप का क्षय करने वाली है और विषय अनुष्ठान एकान्त सावद्य-पापमय होने से मुक्ति का कारण कैसे हो सकता है ? इसी को स्पष्ट करते हुये कहा है कि यद्यपि विषयानुष्ठान से साक्षात् मुक्ति न मिले परन्तु उत्तरोत्तर उत्तम जन्मों की प्राप्ति से कालान्तर में वह मोक्ष का कारण बनता है क्योंकि मोक्ष की इच्छा मोहावरण का नाश करती है, तमोगुण को दूर करती है अथवा अज्ञानता को परे हटाती है / इसलिये कालान्तर में पारम्पर हेतु होने से इसे योग में स्थान दिया है // 216|| द्वितीयाद् दोषविगमो, न त्वेकान्तानुबन्धनात् / गुरुलाघवचिन्तादि, न यत् तत्र नियोगतः // 217 // अर्थ : द्वितीय (अनुष्ठान) से दोषों का नाश होता है लेकिन एकान्त,-संपूर्ण नाश नहीं होता क्योंकि वहाँ निश्चित ही गुण-दोष विवेक नहीं हैं // 217 / / विवेचन : दूसरे स्वरूपानुष्ठान में जीवात्मा क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या इत्यादि कषायदोषों का निग्रह करने का प्रयत्न करती है, लेकिन कषाय और संसार के जो मूल कारण है