________________ 130 योगबिंदु विवेचन : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योग के आठ अंग कहे जाते हैं। उसमें पांच यम-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहरूप पांचव्रत और पांच नियम-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर ध्यान इन दोनों यम और नियम को स्वरूपशुद्ध दूसरे अनुष्ठान में गिना है। वह लोक व्यवहार से शुद्ध अनुष्ठान कहा जाता है अर्थात् पातञ्जल, सांख्य, नैयायिक, वेदान्तिक जो लोक में प्रसिद्ध हैं, उनकी दृष्टि से यह शुद्ध अनुष्ठान है, परन्तु स्याद्वाद दृष्टि से प्रमाणरूप नहीं है क्योंकि उसमें सम्यक्ज्ञान और श्रद्धा का योग नहीं है - अभाव है। जब तक जीव-अजीव, पुण्य-पाप आदि तत्त्वों का सम्यक् बोध न हो तब तक वह अनुष्ठान लौकिकदृष्टि से योग कहा जाता है क्योंकि पुनर्बन्धक जीवों को भी व्यवहारिक योग होता है परन्तु वास्तविक योग नहीं, क्योंकि वह संसार से विरक्त होने पर भी सम्यक् ज्ञान-श्रद्धा आदि के अभाव में शास्त्रविहित प्रवृत्ति करने में असमर्थ होता है। कदाचित कोई घुणाक्षर न्याय से ज्ञानादि के बिना भी शास्त्र विहित प्रवृति करता है / भाव यह है कि प्रथम गुणस्थानवी जीवात्मा संसार से निर्वेद पाकर, लौकिक दृष्टि से प्रतिष्ठित यम नियमादि को जीवाजीवादि तत्त्व को जाने बिना भी धारण करता है, वह लोकदृष्टि से स्वरूपशुद्ध अनुष्ठान कहा जाता है लेकिन वह शास्त्रविहित नहीं होता / ज्ञान और श्रद्धा से शून्य स्वरूपशुद्ध अनुष्ठान औपचारिक है वास्तविक नहीं // 213 // तृतीयमप्यदः किन्तु, तत्त्वसंवेदनानुगम् / प्रशान्तवृत्त्या सर्वत्र, दृढमौत्सुक्यवर्जितम् // 214 // अर्थ : तीसरा (अनुष्ठान) भी यही (यमनियमादि) है किन्तु (इसमें इतना अन्तर है कि) यह तत्त्वज्ञान से युक्त है, जो कि सर्वत्र शान्तवृत्तिवाला दृढ़ और चंचलता रहित होता है // 214|| विवेचन : यम-नियमादि को धारण करने वाला सन्त महात्मा जब जीव, अजीव, पाप, पुण्य आदि नौ तत्त्वों का यथार्थ बोध पा लेता है, तभी वह प्रशान्तवृत्ति विषय कषायादि विकारों से अयुक्त होता है और भोगजन्य लालच से ऊपर उठता है तथा मन, वचन, काया से अचंचल होता है। दूसरे यमनियमादि अनुष्ठान को ही तृतीय अनुष्ठान कहा है परन्तु दूसरे अनुष्ठान से तीसरे अनुष्ठान में इतना अन्तर होता है कि इस तृतीय अनुष्ठान में नवतत्त्वों का यथार्थबोध होता है; विषय कषायादि सभी विकार शान्त हो जाते हैं और दृढ़ निश्चय बढ़ता है; मन, वचन, काया की चंचलता का अभाव होता है, जबकि द्वितिय में ऐसा कुछ भी नहीं होता / तृतीय अनुष्ठान में आन्तरिक शुद्धि विशेष होती है इसलिये यह उत्तम है // 214 // आद्यान्न दोषविगमस्तमो बाहुल्ययोगतः / तद्योगजन्मसंधानमत एके प्रचक्षते // 215 // अर्थ : प्रथम (विषयशुद्ध अनुष्ठान) से दोष नहीं जाते (क्योंकि उसमें) तमोगुण की प्रधानता होती है; कितने ही कहते हैं कि इस (अनुष्ठान) से तदनुरूप जन्म होता है // 215 / /