________________ योगबिंदु है / जो अनुष्ठान विषय से शुद्ध है, स्वरूप से शुद्ध है, परिणामों से शुद्ध है वही वास्तविक शुद्ध अनुष्ठान कहा गया है। विषय-हेतु, आत्मा-स्वरूप और अनुबंध क्रियापरिणाम, इन तीनों से जो शुद्ध है वही शुद्ध अनुष्ठान हैं // 211 // आद्यं यदेव मुक्त्यर्थं, क्रियते पतनाद्यपि / तदेव मुक्त्युपादेयलेशभावाच्छुभं मतम् // 212 // अर्थ : पतनादि जो कुछ भी मुक्ति के लिये किया जाता है, वह मोक्षप्राप्ति की लेशमात्र भी भावना से शुभ, ऐसा प्रथम प्रकार का विषयशुद्ध अनुष्ठान माना है / विवेचन : मुमुक्षु भव्यात्मा विषयशुद्धि अर्थात् मुक्ति रूप साध्य विषय को अनुलक्षित करके, जो भी तप, जप, दान, पूजा आदि अनुष्ठान करता है और कदाचित अनादि कालीन मोह के अशुभसंस्कारों-कर्मों के उदय से, उसकी प्रबलता से सम्यक्त्व से पतित हो जाय अथवा "यह अनुष्ठान मुझे कर्मरज से मुक्त कर दे" ऐसा संकल्प मन में रखकर, भृगुपात-पर्वत पर से गिरना, झंझापात करना, अत्यन्त सर्दी में खुले तालाब में कूदना, गर्मी में सूर्य या अग्नि की आतापना लेना, मरणान्त अनशन करना, शस्त्र से शरीर पर घाव करना, गले में फांसी लगाना, आत्महत्या करना, गिद्ध, सियार, बाघ और सिंह आदि हिंसक प्राणियों को अपना शरीर सौंपना गृघ्रपृष्ट कहा जाता है / इस प्रकार मोक्ष को ध्येय बनाकर आत्महिंसा-आत्मघात तो होता है परन्तु फिर भी मोक्ष का एक अंशमात्र भी ध्येय-लक्ष्य उसमें होने से ऐसे अनुष्ठानों में अंशमात्र भी शुभ भाव-शुद्ध अध्यवसाय होता है इसलिये मुक्ति के उपायरूप अनुष्ठान में इसका स्थान है, कारण केवल इतना ही है कि वहाँ भावों की शुद्धि है। इस योग में भाव की प्रधानता स्वीकारी है / इसलिये इन अनुष्ठानों को शुभ माना है कि मुक्ति की उपादेयता रूप धारणा उसमें रही है हालांकि स्वरूप से यह अनुष्ठान अत्यन्त शुभ नहीं फिर भी बहुत दुष्ट परिणाम वाला न होने से कुछ अंश से शुद्ध है / __ तात्पर्य यह है कि मुक्ति के लिये जो भी बाह्य दैहिक कष्ट सहन किये जाते हैं। वे सब इसी अनुष्ठान में समाविष्ट हो जाते हैं। एकमात्र मोक्ष की अभिलाषा होने से, भावना शुद्ध होने के कारण, इसे अच्छा माना है। इस अनुष्ठान का हेतु शुद्ध है लेकिन इसका स्वरूप गलत है / मात्र हेतुशुद्ध होने से ही इसे ठीक कहा है // 212 // द्वितीयं तु यमाद्येव, लोकदृष्ट्या व्यवस्थितम् / न यथाशास्त्रमेवेह, सम्यग्ज्ञानाद्ययोगतः // 213 // अर्थ : यमादि द्वितीय प्रकार (का स्वरूपशुद्ध अनुष्ठान) लौकिकदृष्टि से व्यवस्थित है; शास्त्रोक्त नहीं क्योंकि सम्यक्ज्ञान श्रद्धादि का उसमें अभाव है // 213 //