________________ योगबिंदु 127 अर्थ : ऐसा ऊहापोह प्रकृति का अधिकार निवृत्त हुये बिना घटित नहीं होता, क्योंकि सर्व व्यवहार प्रकृति के आधीन है लेकिन उसका (भिन्नग्रंथी का) मन विमल है // 207 // विवेचन : कोई शंका करता है कि भववियोग विषयक और शुद्धानुष्ठान का कारणरूप ऊहा-तर्क विचार अप्रवृत्ति बिना प्रकृति का अधिकार निवृत्त हुये बिना कैसे सम्भव है ? क्योंकि सर्वव्यवहार प्रकृति के आधीन है / भिन्नग्रंथी भी प्रकृति के कार्य में तो रहता ही है / उसे उत्तर देते है कि भिन्नग्रंथी आत्मा का मन अत्यन्त निर्मल होता है; प्रकृति का अधिकार उसकी आत्मा से निवृत्त हो गया है; इसलिये ऊहा - मोक्ष विषयक विचार सहज सिद्ध है। मोक्ष की तीव्र अभिलाषा भिन्न ग्रंथि को ही होती है क्योंकि उनपर प्रकृतिरूप कर्मों का जोर कम होता है // 207 // सति चास्मिन् स्फुरद्रत्नकल्पे सत्त्वोल्बणत्वतः / भावस्तमित्यतः शुद्धमनुष्ठानं सदैव हि // 208 // अर्थ : शुद्ध देदीप्यमान रत्न के समान विमलमन रूप-ऊहा के होने पर सत्त्वगुण का उद्रेकअधिकता होती है और अन्तःकरण स्तमित्य भवाभिनन्दी चित्त के क्षुद्रता-दीनतादि दोषों के विलीन होने से शान्त होता है; इसलिये सदैव उसे शुद्ध अनुष्ठान प्राप्त होता है / अर्थात् देदीप्यमान रत्न के समान इस ऊहा के होने पर सतोगुण की वृद्धि होने से तथा अन्तः करण के स्तमित्य-क्षुद्रतादि दोषों से रहित होने से सदैव शुद्ध अनुष्ठान प्राप्त होता है // 208 // विवेचन : अपुनर्बन्धक जीवों को ग्रंथीभेद होने पर देदीप्यमान रत्न के समान उज्जवल भववियोग विषयक ऐसी जो ऊहारूप तर्क-विचार पैदा होता है, उससे उनमें निर्मल सतोगुण की वृद्धि होती है / सतोगुण बढ़ने से हृदय में क्षुद्रता, दीनता, लोभ आदि जो भवाभिनन्दी जीवों के चित्त के दोष हैं, वे सब विलीन हो जाते हैं / इसलिये भिन्नग्रंथी का हृदय बिल्कुल शान्त हो जाता है। ऐसे सतोगुणी, निर्मलमन वाले, शान्तहृदयवाले भिन्नग्रंथी अपुनर्बन्धक जीवों द्वारा किया गया धार्मिक अनुष्ठान हमेशा शुद्ध ही होता है अर्थात् मोक्ष का कारण होता है। अतः यह अनुष्ठान शुद्ध है और ऐसे जीव ही योग के अधिकारी हैं। अर्थात् अपनर्बन्धक आत्मा का ग्रंथीभेद होने से विशुद्ध सद् विचार होने पर, शुद्ध तथा देदीप्यमान रत्न के समान निर्मल सतोगुण बढ़ता है। सतोगुण बढ़ने से हृदय में क्षुद्रता, दीनता, लोभ आदि जो भवाभिनन्दी जीवों के चित्त के दोष हैं, वे सब विलीन हो जाते हैं / इसलिये भिन्नग्रंथी का हृदय बिल्कुल शान्त हो जाता है। ऐसे सतोगुणी, निर्मल मन वाले, शान्त हृदय वाले, भिन्नग्रंथी अपुनर्बन्धक जीवात्माओं का अनुष्ठान हमेशा शुद्ध ही होता है अर्थात् मोक्ष का कारण होता है, इसलिये यह शुद्ध अनुष्ठान है और ऐसे जीव ही योग के अधिकारी हैं // 208||