________________ 126 योगबिंदु मात्र किया ही फल देने वाली है, परन्तु केवल ज्ञान फल नहीं देता कारण कि स्त्री, भोजन तथा भोग को जानने मात्र से (भोगसामग्री को प्राप्त किये बिना) कोई सुखी नहीं हो सकता / इस बात का उत्तर देते हुये ग्रंथकार ने नीचे स्पष्ट किया है कि : चारु चैतद् यतो ह्यस्य तथोहः संप्रवर्तते / एतद्वियोगविषयः शुद्धानुष्ठानभाक् स यत् // 206 // अर्थ : इसका (भिन्नग्रंथी का) यह मोक्षाभिलाषी चित्त सुन्दर है, क्योंकि भववियोग विषयक विचार उसे स्वयं पैदा होता है तथा वह (भिन्नग्रंथी) शुद्धानुष्ठान के योग्य बनता है // 206 // / विवेचन : यद्यपि केवल जानने मात्र से वस्तु की सिद्धि नहीं होती वरन् क्रिया ही फल को देती है; केवल मोक्ष की अभिलाषा से ही मोक्ष की सिद्धि नहीं होती परन्तु जिन्होंने ग्रंथी का भेद कर डाला है ऐसे अपुनर्बन्धक, योगी को अन्दर से ही भववियोग विषयक ऐसे विचार उठते है कि आज तक आठ कर्मों के संयोग से जो भवपरम्परा का दुःख मैंने सहन किया है; संसार की कैद भोगी है; संसार की आधि, व्याधि, उपाधि से पीड़ित हुआ हूँ वह सब मेरी ही अज्ञानता को आभारी है; उसमें कारण मेरी अज्ञानता ही है। अब मैं संसार में नहीं ललचाऊँगा, नही फंसुगा / मोक्ष प्राप्ति के लिये, संसार से मुक्त होने के लिये; कर्मों को खपाने के लिये; अप्रमादपूर्वक, परम शुद्ध भावों से युक्त हो कर, शुद्ध अनुष्ठान-देवपूजा, गुरुसेवा, धर्म के प्रति राग, सर्वजीवों के प्रति मैत्री आदि सद्-आचार युक्त शुद्ध चारित्र का पालन करके, मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करुं ऐसी ऊहातर्क ग्रंथीभिन्न करने वाले को ज्ञान से ही प्राप्त होता है, अज्ञानी को ऐसी ऊहा नहीं होती। फिर वह शुद्ध अनुष्ठान की ओर प्रवृत्त होता है / तात्पर्य यह है कि ज्ञान ही प्रवृत्ति का कारण है / किसी भी वस्तु को जान लेने के पश्चात् ही मनुष्य प्रवृत्ति करता है; जो जानता नहीं वह प्रवृत्ति क्या करेगा? दशवैकालिक चतुर्थ अध्ययन में गाथा 10, 11, में भी कहा है : पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजओ / अन्नाणी किं काही ? किं वा नाहीइ सेअ पावगं // 10 // सोच्चा जाणइ कल्याणं; सोच्चा जाणइ पावगं / उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेअं तं समायरे // 11 // इस प्रकार ज्ञान सहित क्रिया ही शुद्ध अनुष्ठान बनती है // 206 // प्रकृतेरायतश्चैव, नाप्रवृत्त्यादिधर्मताम् / तथा विहाय घटत ऊहोऽस्य विमलं मनः // 207 //