________________ योगबिंदु 125 विवेचन : ग्रंथकर्ता का भाव यह है कि जैसे परपुरुष में आसक्त स्त्री का चित्त तो हमेशा परपुरुष में ही रहता है, ऐसी स्थिति में अर्थात् बेमन से केवल शरीर से उसे अपने पति की जो सेवाभक्ति; सुश्रूषा आदि करनी पड़ती है वह सब उसे पापमय लगती है, अर्थात् उसे उसमें कोई रस नहीं आता; वह उसे अनासक्तभाव से करती है उसी प्रकार भिन्नग्रंथी, सम्यक्दृष्टि, आत्मज्ञानी योगी का चित्त तो हमेशा मोक्ष की ओर रहता है परन्तु फिर भी वह अपने कुटुम्ब, स्वजन, स्त्री आदि का भरणपोषण करना अपना कर्तव्य समझता है / इसलिये दोनों प्रकार से वह कर्मनिर्जरा करता है क्योंकि उसका अध्यवसाय शुभ है और चित्त की आसक्ति नहीं होती / जब क्रिया में चित्त की आसक्तिरूपी चिकनाहर मिलती है, तभी कर्मबंध चिकना बंधता है, लेकिन सम्यक्दृष्टि जीव आसक्ति बिना केवल अपनी कर्तव्यनिष्ठा से सांसारिक व्यवहार करता है / इसलिये उसका कर्मबंध निलिप्त-अनासक्त होने से अल्पकालीन ही होता है, इसीलिये इसे कर्मबंध भी नहीं कहते / यहा परपुरुष पर आसक्त स्त्री का दृष्टान्त अनासक्तभाव को पुष्ट करने के लिये दिया है / न चेह ग्रन्थिभेदेन, पश्यतो भावमुत्तमम् / इतरेणाकुलस्यापि, तत्र चित्तं न जायते // 205 // अर्थ : ग्रंथीभेद से उत्तमभाव (मोक्ष) को देखने वाले का चित्त अन्य से (पुत्रकलत्रादि कौटुम्बिक बंधनों से) आकुल-व्याकुल होने पर भी उसमें (मोक्ष में) उसका चित्त नहीं रहता; ऐसा नहीं है // 205 // विवेचन : कोई शंका करता है कि जिसने मोहरूपी ग्रंथी का भेद कर दिया है, फिर भी वह सांसारिक प्रवृत्ति में रुका हुआ है तो उसे आत्मस्वरूप रमणता का शुद्ध अध्यवसायरूप सर्वोत्तमभाव कैसे हो सकता है ? क्योंकि पुत्र, स्त्री, स्वजन, कुटुम्ब, परिवार सम्बंधी बंधन और उनके जीवनरक्षण का बोझ उसके चित्त को आकुल-व्याकुल नहीं कर देता होगा ? ग्रंथकार उसे उत्तर देते हैं कि जो भिन्नग्रंथी अपुनर्बन्धक कर्म योगी है; उसके चित्त की परिणति अशुभ अध्यवसाय रहित होती है / इसलिये संसार में कुटुम्बादि का कार्य करने पर भी वह उसमें आसक्त नहीं होता, अपितु उसका मन तो हमेशा आत्मस्वरूप-उच्च भावों में ही रमण करता है; अगर ऐसा न हो तो ग्रंथीभेद रूप शुभयोग उसे कदापि प्राप्त नहीं हो सकता था // 205 // कोई वादी शंका करता है कि मात्र मोक्षाभिलाषी चित्त बिना क्रिया-पुरुषार्थ के मोक्ष की सिद्धि करने में असमर्थ है, कहा भी है : क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतं / यता स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् //