________________ 124 योगबिंदु "अनुसोओ संसारो पडिसोओ तस्स उत्तारो" जो अनुस्रोतगामी है; ओघप्रवाह में बहता है; प्रवाह गामी है, वह संसारी है, क्योंकि वह दीन होकर संसार के चालू प्रवाह मे बह जाता है / परन्तु जो वीर प्रतिस्त्रोतगामी है संसार के प्रवाह में न बहकर; उससे उल्टा- प्रवाह के सामने होता है, वह मोक्षमागी है / इसी वस्तु को यहाँ श्री हरिभद्रसूरिजी ने स्पष्ट किया है कि वीर को योग की प्राप्ति होती है; ओघप्रवाह में बहने वाले कायर को योग की प्राप्ति दुर्लभ है // 202 // भिन्नग्रन्थेस्तु यत् प्रायो, मोक्षे चित्तं भवे तनुः / तस्य तत्सर्वं एवेह, योगो योगो हि भावतः // 203 // अर्थ : भिन्नग्रंथी जीवों का शरीर संसार में और मन-चित्त मोक्ष में होता है; इसलिये उनकी सर्वप्रवृत्ति, भावयोग ही है। अथवा भिन्नग्रंथी जीवात्मा का चित्त मोक्ष में और शरीर संसार में होता है; इसलिये (योगी) उसके सर्वव्यापार को योग ही कहते हैं क्योंकि वह भाव से योग है // 203 / / विवेचन : चित्त की अतितीव्र रागद्वेषमयी ग्रंथी को जिसने भेद डाला है; ऐसा जीवात्मा मोक्ष को ही अपना लक्ष्य बनाकर तप, जप, संयम, ध्यान, समाधि में चित्त को जोड़ता है और शरीर को संसार के कार्यों में अर्थात् माता-पिता की सेवा, स्त्री, स्वजन, कुटुम्ब का भरण पोषण आदि व्यवहार कार्यों में लगाता है / भिन्नग्रंथी की दोनों प्रकार की प्रवृत्ति चलती है / गीता में जिसको अनासक्त कर्मयोगी कहा है; मुख में राम और हाथ में काम; किसी जैन कवि ने भी ऐसा ही कहा है :- समकितधारी जीवड़ो करे कुटुम्ब प्रतिपाल, अन्तरथी न्यारो रहे जेम धाय खिलावे बाल" | इसका मतलब है संसार में रहते हुये भी सांसारिक विषयों से जलकमलवत् निर्लिप्त रहना / ऐसे सम्यक्दृष्टि आत्मा की सर्वप्रवृत्ति उच्च लक्ष्ययुक्त होने से योग ही कही जाती है, क्योंकि भाव से तो वह योगी ही है। इसलिये यह उसका भावयोग है, ऐसा महापुरुषों ने कहा है // 203 // नार्या यथाऽन्यसक्तायास्तत्र भावे सदा स्थिते / तद्योगः पापबंधश्च, तथा मोक्षेऽस्य दृश्यताम् // 204 // अर्थ : जैसे पर-पुरुष पर (अन्यासक्त) स्त्री का चित्त सदैव अन्य में आसक्त रहता है और उसे उसके पति की सेवासुश्रूषा रूप प्रवृत्ति पापमय लगती है, उसी प्रकार मोक्ष के सम्बंध में भिन्नग्रंथी का समझें (अर्थात् भिन्नग्रंथी के कुटुम्ब के भरण पोषण का व्यापार मन की आसक्ति से रहित समझें) // 204 / /