________________ योगबिंदु 123 अधिकार-बल अंशमात्र भी निवृत्त हो जाय, तभी प्राप्त होता है / अर्थात् जब संसार के बीजभूत राग और द्वेष की गांठ ढीली पड़ती है, तब मोक्षमार्ग की ओर प्रथम कदम रूप, योग के अंगरूप सम्यक् दर्शन की प्राप्ति निश्चित होती है। फिर वह आत्मा अपुनर्बन्धकत्व को प्राप्त करती है। जब आत्मा के ऊपर से गाढ़ आवरण निवृत्त होते हैं, तब आत्मा की सत्य की ओर रुचि पैदा होती है और वह आध्यात्मिक भावों में रसिक बनती है // 201 // वेलावलनवन्नद्यास्तदापूरोपसंहृतेः / प्रतिस्रोतोऽनुगत्वेन, प्रत्यहं वृद्धिसंयुतः // 202 // " अर्थ : महासमुद्र के क्षुभित होने पर जैसे नदी में पूर (ज्वार) चढ़ता है अर्थात् जलवृद्धि होती है वैसे ही (प्रकृति के अधिकार से निवृत्त जीवात्मा) प्रतिस्रोतानुगामित्वभाव से प्रतिदिन योग में वृद्धि पाता है। अथवा समुद्र में ज्वार आने से नदी का प्रवाह उल्टा होने पर जल की वृद्धि होती है इसी प्रकार प्रकृति की तरफ मन और इन्द्रियों का जो प्रवाह बहता था वह प्रकृति का सम्बंध छोड़ने से, पीछे की ओर मुड़ा हुआ वह परिणामरूप भावना का प्रवाह आत्म स्वरूप में वृद्धि पाता है // 202 / / विवेचन : नदी का स्वभाव है; वह हमेशा समुद्र की ओर बहती है / उसका प्रवाह अधोगामी होता है; उसे अनुस्रोत कहते हैं लेकिन जब समुद्र में तूफान आता है, ज्वार आता है तो नदी का स्तोत्र-प्रवाह उल्टा हो जाता है / वह ऊपर की ओर बहने लगता है, उसे प्रतिस्त्रोत कहते हैं और प्रतिस्रोत से नदी में जल की वृद्धि होती है / इसी प्रकार "इन्द्रियकषायानुकूलावृत्तिरनुस्रोतस्तत्प्रतिकूला तु प्रतिस्रोतः" इन्द्रियों और विषय कषायों को पुष्टि देने वाली चित्त की जो वृत्तिप्रवृत्ति है वह अनुस्रोतवृत्ति कही जाती है। और इससे विरुद्ध अर्थात् इन्द्रियभोगों और विषय कषायों से दूर रहने की जो वृत्ति है-प्रवृत्ति है, वह प्रतिस्तोत्रप्रवृत्ति कही जाती है / जब प्रकृति का जोरबल कम होने लगता है तब मन और इन्द्रियाँ जो विषय कषायरूप प्रकृति की ओर दौड़ती थी, वहाँ से हटकर, आत्म स्वरूप में दिन-प्रतिदिन निमग्न होने लगती है। आध्यात्मिकता में अधिक रस लेने लगती है / इस प्रकार योग में निरन्तर वृद्धि होती है। प्रतिस्रोतोन्गत्वेत = प्रतिस्त्रोत = उल्टा प्रवाह; अनुगः अनुगमन करने वाला, उसका भाव अनुगामीत्व / संसार से मुड़कर-पीठ कर के, मोक्ष की ओर जिसकी यात्रा शुरु हो जाती है, ऐसे मुमुक्षु की सभी धार्मिक क्रियाएँ योग की वृद्धि करने वाली होती है। दशवैकालिक सूत्र की चूलिका में श्री स्वयंभवाचार्य ने बहुत ही सुन्दर कहा है :