________________ योगबिंदु 121 स्वीकृत हो ही गया / इसमें ईश्वर को हेतु मानने की कोई जरुरत नहीं। अगर ईश्वर के अनुग्रह या निग्रह को योग्यता या अयोग्यता बिना मानें तो कार्य-कारण भाव नहीं बनता फिर तो कारण बिना सभी भूल होने चाहिये अथवा बिना कारण धर्मी भी अधार्मिकों के साथ से अनेक दोष आते हैं। अतः अनादिकालीन कर्मबंध की योग्यतारूप सहजमल ही जगत का हेतु है और वह मल अपेक्षा से भेदरूप और अभेदरूप है // 197|| विरोधिन्यपि चैवं स्यात्, तथा लोकेऽपि दृश्यते / स्वरूपेतरहेतुभ्यां, भेदादेः फलचित्रता // 198 // अर्थ : विरोधी मतों में भी ऐसा है और लोक-व्यवहार में भी ऐसा ही देखा जाता है कि स्वरूप और स्वरूप से इतर इन दो हेतुभेद से कार्यफल में विचित्रता आती है / / 198|| विवेचन : विरोधी याने जैनमत से विरुद्ध सिद्धान्तों को मानने वालों को भी भिन्न-भिन्न स्वरूप वाली प्रकृति को ही मुख्यरूप से कार्यसाधक मानना पड़ता है। ईश्वर आदि अर्थ भी प्रकृति से ही सिद्ध होते हैं / लोकव्यवहार में भी कार्य की सिद्धि स्वरूप याने उपादान और तद्-इतर स्वरूप से भिन्न अर्थात् उपादान से भिन्न, जो निमित्त आदि कारण है, इन दो (उपादान और निमित्त) हेतुओं से ही कार्य में वैचित्र्य आता है। किसी एक को माने और दूसरे को न माने तो नहीं चलता / जैसे मिट्टी, घट का उपादान कारण है; केवल उपादान कारण को ही माने और निमित, चक्र, दण्ड, कुलाल, कुम्भार आदि को न मानें तो सर्वत्र घटमात्र एक ही आकार के होने चाहिये और केवल चक्र, दण्ड, कुम्हार आदि बाह्य निमित्त कारणों को तो मानें, परन्तु मिट्टी जो उपादान है उसको न माने तो घट की उत्पत्ति कैसे होगी? इसलिये स्वरूप-मृतिका और तद्-इतर-बाह्य निमित्तादि दोनों को कारण मानना चाहिये। तभी भिन्न और अभिन्न जिनमतों का स्वरूप सिद्ध होता है / तात्पर्य यह है कि सांसिद्धिकमल प्रकृति-कर्मबंध की आत्मा की जो योग्यता है वह उपादान है; वह काल, स्वभाव, नियति और पुरुषार्थ रूप बाह्य और अभ्यन्तर भिन्न-भिन्न निमित्तों से विचित्र कर्मों को बांधता है और विचित्र रूपों को धारण करता है। लोक में और अन्य शास्त्रों में भी ऐसा ही प्रसिद्ध है / यह योग्यता जो कर्मबंध का हेतुभूत है। उस योग्यता का जितने अंश में नाश होता है, उतनी ही आत्मा पवित्र होती जाती है और वह जब उत्कृष्ट कर्म स्थिति को नहीं बांधता तब उसे शास्त्रकार अपुनर्बन्धक कहते हैं / लेकिन जब कर्मबंध योग्यता का सर्वथा नाश हो जाता है तब सर्व जन्म, मरण, दुःख, शोक, आधि-व्याधि से मुक्त होकर सर्व कर्मों के नाश से जीव परम निर्वाण मोक्षपद को पाता है। इस प्रकार कर्मसम्बंध से संसारी और वियोग से मुक्त होता है, यह बात किसी तर्क से पैदा की हुई नहीं है, अनुभूत है। ऐसा विचार करना उसे ऊहा कहते हैं // 198 //