________________ 120 योगबिंदु आत्माएं संसार में कर्म के कारण ही ऊँच-नीच योनियों में भटकती हैं / जीवात्मा में संसार और मोक्ष प्राप्ति, दोनों प्रकार की योग्यता रही हुई है / जब कर्म का संयोग होता है तो संसार होता है और वियोग होने पर मुक्त हो जाता है। अतः संसार और मोक्षप्राप्ति आत्मा का विरोधी नहीं // 196 // सांसिद्धिकमलाद् यद्वा, न हेतोरस्ति सिद्धता / तद् भिन्नं यदभेदेऽपि, तत्कालादिविभेदतः // 197 // अर्थ : सांसिद्धिकमल-स्वभावसिद्धमल को छोड़कर, अन्य हेतु की सिद्धि नहीं होती और वह हेतु अभिन्न होने पर भी काल नियति आदि की भिन्नता से भिन्न है // 197|| अर्थात् आत्मा के साथ अनादिकाल की परम्परा से स्वाभाविक रूप से संसिद्ध मेल के अतिरिक्त संसार बन्धन का हेतु अन्य कुछ भी नहीं है। आत्मा से प्रकृति का जो अभेद दिखाई देता है फिर भी कालादि की अपेक्षा से भेदरूप अनुभव होता है, अर्थात् प्रकृति से भिन्न होती ही आत्मा का मोक्ष होता है // 197 // विवेचन : अनादिकाल से स्वभावसिद्धमल अर्थात् कर्मबंध की योग्यता ही संसार की विचित्रता का हेतु-कारण है, उसे ही प्रकृति कहते हैं / सांसारिक विचित्रता में इस हेतु के सिवाय ईश्वरादि हेतु घटता नहीं है। वह सहजमल नाना स्वरूपवाला है। इसी से संसार का वैचित्र्य घटता है। चैतन्यस्वरूप सर्वजीवों में समान है, इसलिये अभेद भी है। परन्तु काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत और पुरुषार्थ इन पांच कारणों में जितने अंश में भिन्नता हो, उतने अंश में कार्य में भी विचित्रता, भिन्नता होती है / ग्रंथकार ने टीका में कहा है कि जीवों के परिणाम -शुभाशुभ विचारों के अनुसार ही शुभाशुभ कर्मबंध होता है / इसलिये शुभाशुभ, सुखदुःख आदि द्वन्द्वों में उस जीव के अध्यवसाय ही कारण है। ईश्वर को उसमें कारण नहीं कह सकते क्योंकि ईश्वर की व्याख्या करते हुये ईश्वरवादियों ने इस कारिका में बताया है : ज्ञानमप्रतिघं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः / ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम् // जिसके ज्ञान और वैराग्य को कोई नष्ट नहीं कर सकता; जिसका ऐश्वर्य और दुर्गति में पड़ते जीवों को बचाने वाला धर्म सहजसिद्ध है; वह ईश्वर है। ईश्वर का ऐसा लक्षण किया है। जो विरागी है वह किसी का भला या बुरा कैसे कर सकता है और अगर वह करे तो उसमें राग और द्वेष आ जाने से उसका वैराग्य ही समाप्त हो जाता है / जीवों की योग्यता या अयोग्यता के अनुसार ईश्वर की कृपा या अकृपा होती है, ऐसा अगर तो प्रच्छन्न रूप से हमारा सिद्धान्त-कर्मबंध की योग्यता