________________ योगबिंदु 119 का सातत्य-सहयोग सतत् उसके साथ ही रहता है / जैसे विषयभोग में आसक्त युवक स्रियों द्वारा गाये जाने वाले सुन्दर गानों से आसक्त होता है वैसे ही धर्ममार्ग का अनुसरण करने वाला अपुनर्बन्धक आत्मा भव के कारणों पर सूक्ष्म विचार करता हुआ भवनिर्वेद को प्राप्त करता है। उसका वैराग्य और भी दृढ़ होता जाता है // 194|| प्रकृतेर्भेदयोगेन, नासमो नाम आत्मनः / हेत्वभेदादिदं चारु, न्यायमुद्रानुसारतः // 195 // अर्थ : प्रकृति के भेदयोग से आत्मा का चैतन्यस्वरूप भिन्न नहीं रहता, क्योंकि (प्रकृतिरूप) हेतु भिन्न नहीं; यही न्यायानुसार उत्तम है // 195 // विवेचन : सांख्यदर्शनकार प्रकृति के सत्त्व, रजस, तमस तीन प्रकार मानते हैं; जैन उसे स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुष्यकर्म और वेदनीय कर्म के मुख्य आठ प्रकार मानते हैं / प्रकृति कहें अथवा उसे कर्म कहें दोनों एक ही वस्तु है / ग्रंथकर्ता कहना चाहते हैं कि प्रकृति अथवा कर्म जब आत्मा से एकान्तअलग पड़ जाते हैं तो आत्मा का शुद्ध चैतन्यस्वरूप भिन्न नहीं रहता / कर्म से मुक्त सभी आत्माओं का चैतन्यस्वरूप समान ही होता हैं - एक ही होता है क्योंकि हेत जो प्रकृति अथवा कर्म है, वह सब का एक ही है। यही न्यायानुसार उत्तम है और न्याययुक्त है। जैसे सूर्य स्वभाव से ही प्रकाशक स्वभाव वाला है लेकिन जब बादल सूर्य को ढक देते हैं, तो सूर्य पृथ्वी को पूर्ण प्रकाश नहीं दे सकता, किन्तु जब बादल हट जाते हैं तो सूर्य पूर्ण प्रकाश देता है / उसी प्रकार प्रकृति या कर्म के आवरण जब आत्मा से एकान्तरूप से दूर हो जाते हैं, आत्मा का सहज स्वरूप प्रकाशित होता है / अगर प्रकृति या कर्म से मुक्त होने पर भी आत्मा का नानात्व (भिन्न-भिन्न अस्तित्व) प्रकार रहे तो संसारी और मुक्त में कोई अन्तर नहीं रहेगा, मुक्त भी संसारी हो जायेगा / नानात्व प्रकार तो प्रकृति या कर्म के कारण है, प्रकृति-कर्म नहीं तो नानात्व भी नहीं // 195 // एवं च सर्वस्तद्योगादयमात्मा तथा तथा / भवे भवेदतः सर्वप्राप्तिरस्याविरोधिनी // 196 // अर्थ : इस प्रकार प्रकृति-कर्म के संयोग से सर्व जीव संसार में नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेते हैं / इसलिये सर्व प्राप्ति (संसार और अपवर्ग की प्राप्ति) आत्मा के विरोधिनी नहीं है // 196|| विवेचन : कर्मरूप प्रकृति के कारण ही जीव नाना प्रकार के अध्यवसायों द्वारा विविध गतियों का बंध करता है। जिनमें कर्मबंध की योग्यता रूप रागद्वेष का बीज रहा हुआ है, वे सर्व