________________ योगबिंदु 117 लक्ष्मी की अपार कृपा का होना ये सभी विषयभोग के अनुकूल कारण होने से भोग के अंग कहे जाते हैं। इनमें भी रूप, वय और धन-सम्पति ये तीन मुख्य साधन हैं / ये तीन साधन जिसके पास हैं; वह भोगी ही भोगसुख का अनुभव कर सकता है / परन्तु इन तीनों के बिना व्यक्ति भोग सुख से वंचित रहता है, क्योंकि निर्धन भोग के लिये अनुकूल सामग्री प्राप्त नहीं कर सकता; वृद्धशरीर प्राप्त भोगों को भोगने के लिये असमर्थ होता है और कुरूप को सदा अपनी सुन्दर स्त्री के लिये शंका रहती है। शंकाशील चित्त को सुख-शान्ति कहां? जैसे रूप, वय और धन से विकलव्यक्ति भोगसुख का अनुभव, आनन्द नहीं ले सकता उसी प्रकार जिस जीव में शान्ति, उदारता आदि गुण नहीं वह अध्यात्म रस का आनन्द भी नहीं ले सकता // 190 // अभिमानसुखाभावे, तथा क्लिष्टान्तरात्मनः / अपायशक्तियोगाच्च, न हीत्थं भोगिनः सुखम् // 191 // अर्थ : तथा अभिमानसुख के अभाव में आत्मा के अन्दर क्लेश होता है, इस प्रकार अपायशक्ति के योग से भोगी को सुख नहीं // 191 // विवेचन : भोगी को कहीं भी सुख नहीं होता, भोग सामग्री उपलब्ध होने पर उसे अभिमान होता है कि 'मैं सुखी हूँ', 'मेरे पास इतनी सम्पत्ति है, सत्ता है'; सर्वशक्ति सम्पन्न हूँ; 'मै ही सर्वेसर्वा हूँ' ऐसा अभिमानजन्य सुख भी तत्काल नष्ट हो जाता है। जब वह अपने से अधिक सम्पत्ति, सत्ता और ऐश्वर्य देखता है उसका अभिमान चूर-चूर हो जाता है / अभिमान किसी को आगे बढ़ता नहीं देख सकता; इसलिये अभिमानी हमेशा अन्दर से दुःखी रहता है और सुख के साधन नहीं होने पर, उन्हे प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार के झूठ, चोरी, ठगी आदि आर्त और रौद्र ध्यान में सदा ही चित्त लगा रहने से वह बेचैन और दुःखी रहता है / प्राप्त भोग की सामग्री भी क्षण स्थायी है; कब तन, धन, यौवन मनुष्य को धोखा दे जाय किसी को मालुम नहीं अतः अनेक विघ्नों से भरे हुये अपायशक्ति से युक्त भोगी को सच्चे सुख की प्राप्ति कहीं हो सकती है ? भोगसुख की प्राप्ति भी, प्राप्ति की सम्हाल भी और उसका अन्त परिणाम भी दुःखदायी है, इसलिये महापुरुषों ने भोगसुख को हेय और शाश्वत मोक्ष सुख को ही उपादेय बताया है / उसी मोक्षसुख के लिये प्रयत्न करना चाहिये // 19 // अतोऽन्यस्य तु धन्यादेरिदमत्यन्तमुत्तमम् / यथा तथैव शान्तादेः, शुद्धानुष्ठानमित्यपि // 192 // अर्थ : इससे अन्य भोगी के भोगसुख को जैसे अत्यन्त उत्तम कहा है; वैसे ही शान्तादि के शुद्ध अनुष्ठान को इससे भी उत्तम कहा है // 192 / /