________________ 116 योगबिंदु मिथ्याविकल्परूपं तु, द्वयोर्द्वयमपि स्थितम् / स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पिनिर्मितं न तु तत्त्वतः // 189 // अर्थ : दोनों का (धन, स्वास्थ्य, यौवन विहीन व्यक्ति का भोग, सुख और अशान्त अनुदात्त प्रकृति के व्यक्ति का शुद्ध अनुष्ठान) दोनों मिथ्या विकल्प रूप है। अपनी बौद्धिक कल्पनारूपी शिल्पी से निर्मित है, वास्तविक नहीं // 189 // विवेचन : धन, स्वास्थ्य और यौवन विहीन व्यक्ति जैसे भोगसुख के लिये केवल कल्पना के घोड़े दौड़ा सकता है; कल्पना से भोगसुख के स्वप्न देख सकता है, लेकिन यथार्थ भोगसुख उससे कोसों दूर होता है। इसी प्रकार जिसका चित्त शान्त नहीं; उदात्त नहीं; विकार और विषयों को जिसने जीता नहीं; जिसकी उच्च-उच्चत्तर भावना नहीं, उसका अनुष्ठान भी तात्त्विक शुद्ध नहीं, मिथ्या है, बौद्धिक कल्पना मात्र है / तात्पर्य यह है कि बाह्यरूप से धार्मिक होने पर भी अन्दर से जिसे भौतिक सुखों की लालसा बनी रहती है, ऐसे पुद्गलभोगी और भोग की प्राप्ति के लिये धर्म करने वाले धार्मिकों को, बाह्यभाव से आकर्षण करने वाले धन, स्त्री, सत्ता आदि भौतिक वस्तुओं में जो सुख की वासना अनादि काल से बंध गई है वह मरु-मरीचिका जैसी मिथ्या भ्रांति ही है। वास्तव में तो वे दुःख के ही कारण हैं / मिथ्यात्वी और अज्ञानी जीवों को ही ऐसा होता है। ऐसे जीवों द्वारा की गई पूर्व-सेवा चौरासी का चक्र ही बढ़ाती है। शाश्वत सुख जो वास्तविक है वह नही दे सकती। इसलिये भोगसुख धर्मानुगत हो, तो वह भी अतात्त्विक ही है। आत्मशुद्धि पूर्वक किया गया धर्मानुष्ठान ही सच्चे सुख मोक्षमार्ग का प्रधान हेतु और तात्त्विक है // 189 // भोगाङ्गशक्तिवैकल्यात्, दरिद्रायौवनस्थयोः / सुरूपरागाशङ्के च, कुरूपस्य स्वयोषिति // 190 // अर्थ : दरिद्र को भोग के साधनों का, वृद्ध को शक्ति का अभाव होता है और कुरूप को अपनी सुन्दर स्त्री के प्रति शंका रहती है // 190 // विवेचन : दृष्टान्त देकर समझाया है कि जैसे विषयभोग की तीव्र इच्छावाले मनुष्य के लिये वात्सायन ऋषि ने भोग के जो अंग-साधन बताये हैं : रूपवयो वैचक्षण्य सौभाग्य माध्यैश्वर्याणि भोग साधनम्-इति / तत्रापि रूपवयो वित्ताढ्यत्वानि प्रधानानि इति // रूप-गौरवर्ण, वय - यौवना-अवस्था, वैचक्षण्य-चतुराई, सौभाग्य-सर्वजनप्रियत्व, माधुर्यभाषा में कोमलता, मिठास, ऐश्वर्य- लोक में सभी उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करे, धनाढ्यत्व