________________ योगबिंदु 115 प्रकृति अनुदात्त हैं, वे इतने ऊँचे लक्ष्य का विचार नहीं कर सकते / जितनी योग्यता होगी वैसा ही विचार होगा // 186 // शान्तोदात्तः प्रकृत्येह शुभभावाश्रयो मतः / धन्यो भोगसुखस्येव वित्ताढ्यो रूपवान् युवा // 187 // अर्थ : धनवान्, रूपवान और युवक जैसे भोगसुख को आश्रय देने वाले होते हैं वैसे ही यहाँ प्रकृति से शान्त और उदात्त जीवात्मा शुभभाव को देने वाले होते हैं / ऐसा योगियों का मत है, अत: वह धन्य है // 18 // विवेचन : जैसे कोई भाग्यशाली आत्मा सुन्दर हो, जवान हो, धनवान भी हो, तो वह भोगसुख को आश्रय देती हैं अर्थात् इन्द्रियजन्य सभी प्रकार के सुखों का उपभोग करते हुए भी साथ-साथ लोकोपकार के कार्य भी करती है। इसलिये वह व्यक्ति लोकप्रिय होता है; ऐसे जीवात्मा की सभी लोग प्रशंसा करते हैं और उसे धन्यवाद देते हैं / इसी प्रकार जो जीवात्मा इन्द्रिय और मन के विकारों पर निग्रह करते हैं और कषायों को जीत लेते है, ऐसी शान्त और उदात्त प्रकृति आत्मा शुभ भावना द्वारा चित्त के अध्यवसायों को उत्तरोत्तर शुद्ध करती है। ऐसे लोगों को योगी लोग धन्यवाद देकर, उनकी प्रशंसा करते हैं / ऐसे जीव ही अध्यात्ममार्ग में प्रवेश कर सकते है। शान्त से तात्पर्य इन्द्रियजन्य विकारों और कषायों की शान्ति है और उदात्त उत्तरोत्तर भावना की शुद्धि हैं // 187 / / अनीदृशस्य च यथा, न भोगसुखमुत्तमम् / अशान्तादेस्तथा शुद्धं, नानुष्ठानं कदाचन // 188 // अर्थ : जो ऐसा नहीं (धनवान रूपवान, जवान नहीं) उसे जैसे उत्तम भोगसुख की प्राप्ति नहीं होती वैसे ही अशान्त, अनुदात्त प्रकृति जीव का अनुष्ठान कभी भी शुद्ध नहीं होता // 188 // विवेचन : जिसके पास धन नही; जिस का शरीर निरोगी नही; जिस की इन्द्रियाँ क्षीण हो चुकी है ऐसा निर्धन, रोगी और वृद्ध व्यक्ति जैसे उत्तम भोगसुखों का अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि योग के लिये भी धन चाहिये स्वस्थ शरीर चाहिये और इन्द्रियाँ समर्थ होनी चाहिये / जो इन तीनों से वंचित है, वह इच्छा होने पर भी इन्द्रिय जन्य सुखों से वंचित रहता है और लोग भी उसके प्रति तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं / किसी को भी वह प्रिय नहीं लगता / उसी प्रकार जिसने इन्द्रियों के विकारों पर निग्रह-संयम नहीं किया; कषायों को जीता नहीं; भावनाओं का परिष्कार नहीं किया; उसे शुद्ध अनुष्ठान, तात्त्विक पूर्वसेवा-देवपूजनादि कभी सम्भव नहीं होता / ऐसे लोग योग के अधिकारी नहीं है अर्थात् ऐसे लोगों द्वारा की गई पूर्वसेवा आत्मगुणों को तथा अध्यात्मभाव को प्रकट करने में समर्थ नहीं होती // 188 //