________________ 114 योगबिंदु विवेचन : प्रकृति-जीव स्वभाव जब क्लेशमय होता है; बार-बार पुनर्बन्धकता होने से उसका संसार बढ़ता है। ऐसी प्रकृतिवाले जीवों द्वारा की गई पूर्वसेवा, संसारवृद्धि का कारण होने से, औपचारिक कही जाती हैं। लेकिन क्लेशकारक ऐसी प्रकृति के सम्बंध से पुरुष-आत्मा जब संसार के आधि, व्याधि, उपाधि से दुःखी होकर, ऊब जाता है, तब धीरे-धीरे वह सत्यधर्म की ओर झुकता है और जब संवेग, निर्वेद, भव-वैराग्य से उत्तरोत्तर स्वभाव में निर्मलता आती है तो क्लेश का अभाव हो जाता है, और प्रकृति-जीव स्वभाव कल्याणकारी हो जाता है / जीव के ऐसे क्लेश रहित कल्याणकारी स्वभाव (प्रकृति) को ही वास्तविक प्रकृति कहा हैं / वही मुख्य है, वही आत्मा का मौलिक स्वभाव है / इसी प्रकृति को ही लक्ष्य में रखकर, पूर्वसेवा कही हैं। अन्य प्रकृति-जीव स्वभाव तो विकृत प्रकृति स्वभाव है / विकृत प्रकृति से की गई पूर्वसेवा औपचारिक है, और आत्मा की वास्तविक प्रकृति से की गई पूर्वसेवा वास्तविक तात्त्विक है // 184|| एनां चाश्रित्य शास्त्रेषु व्यवहारः प्रवर्तते / ततश्चाधिकृतं वस्तु नान्यथेति स्थितं ह्यदः // 185 // अर्थ : इसी (तात्त्विक प्रकृति) के आधार पर ही शास्त्रों में पूर्वसेवा का व्यवहार किया है अतः शास्त्रकारों ने जिस वस्तु को स्वीकार किया है वह उचित ही है अन्यथा नहीं // 185 // विवेचन : आप्त पुरुषों ने योगशास्त्र में शुद्ध प्रकृति के आधार पर ही पूर्वसेवा-देवपूजा, गुरुभक्ति-तप-जप आदि का तात्त्विक प्रतिपादन किया है, क्योंकि अपुनर्बन्धकों की ही ऐसी तात्त्विक प्रकृति होती है अतः अपुनर्बन्धक ही योगरूप मोक्षमार्ग के वास्तविक अधिकारी हैं, अन्य नहीं / इसलिये शास्त्रविहित तात्त्विक सेवा ही उचित हैं, अन्यथा नहीं // 185 // शान्तोदात्तत्वमत्रैव शुद्धानुष्ठानसाधनम् / सूक्ष्मभावोहसंयुक्तं तत्त्वसंवेदनानुगम् // 186 // अर्थ : यहाँ शान्त और उदात्त प्रकृति को ही शुद्ध अनुष्ठान का साधन माना है, जो सूक्ष्मविचारों (बंधमोक्ष के सूक्ष्म विचारों) से युक्त है और तत्त्वज्ञान की अनुगामी हैं // 186 // विवेचन : शुद्धप्रकृति ही जीव का स्वभाव है / अन्य तो विकृति है / इसीलिये कहा है कि शान्त इन्द्रियों के विकारों और क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों से रहित अर्थात् इन्द्रिय जन्य विकारों और कषायों से शान्त तथा उदात्त-मन की उच्च उच्चत्तर भावना द्वारा आश्रव द्वारों को रोकने का जो प्रयत्न हैं, ऐसी शान्त और उदात्त प्रकृति ही, शुद्ध अनुष्ठान पूर्वसेवा का मुख्य कारण है; क्योंकि शान्त और उदात्त प्रकृति वाला साधक ही बंध और मोक्ष की सूक्ष्म विचारणा कर सकता है और तत्त्वज्ञान का अनुगामी हो सकता है। ऐसी शान्त और उदात्त प्रकृति अपुनर्बन्धकों को ही होती है इसलिये वे ही योग के अधिकारी हैं। जिनका चित्त विकारों और कषायों से चंचल हैं, जिनकी