________________ योगबिंदु 113 से विविध कर्मों के मलों से इतना मलीन हो चुका है कि खान से निकले हीरे की भाँति उसकी शक्ति का, उसकी कीमत का कुछ भी ज्ञान नहीं होता और अज्ञानता के कारण संसार में विविध कर्म-विपाकों से दुःखी होकर भटकते फिरते है - परन्तु सद्गुरु का योग, धर्म की आराधना, योग की साधना तथा पूर्वसेवा द्वारा संपूर्ण कर्ममल का जब नाश हो जाता है और आत्मा निर्मल हो जाती है तो वह भी सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र से शोभित है, देदीप्यमान और मन-मोहक हो उठती है // 181 // तत्प्रकृत्यैव शेषस्य केचिदेनां प्रचक्षते / आलोचनाद्यभावेन तथानाभोगसङ्गताम् // 182 // अर्थ : कितने ही (शास्त्रकारों ने) ने शेष (सकृत या असकृत्बंधकों) की पूर्वसेवा को आलोचनादि के अभाव के कारण प्रकृति से ही अनाभोगसंग वाली कहा है // 182 / / विवेचन : अन्य दर्शनकारों ने अपुनर्बन्धकों के अतिरिक्त जो सकृत या असकृत्बंधक हैं उनकी पूर्वसेवा को आलोचनादि उहापोह से रहित होने के कारण, प्रकृति के बल से ही अनाभोगसंग वाली कहा है। यह पूर्वसेवा-विवेकशून्य और उपयोग रहित होती है, इसलिये इसे उपचार से द्रव्यसेवा कहा हैं // 182 // युज्यते चैतदप्येवं तीव्र मलविषे न यत् / तदावेगो भवासङ्गस्तस्योच्चैर्विनिवर्तते // 183 // अर्थ : उपर्युक्त कथन भी युक्तियुक्त है, क्योंकि उनका (शेषजीवों - सकृत्बंधकादि का) तीव्र मलरूपी विष का आवेग, जो संसार प्रतिबंधक है, अत्यन्त निवृत्त नहीं होता हैं // 183 // विवेचन : उपर जो शेष-सकृत या असकृत्बंध, भवाभिनन्दी जीवों की पूर्वसेवा को निरूपयोगी कहा है, वह उचित ही है। क्योंकि अगर उनकी पूर्वसेवा मुख्य होती तो संसार की निवृत्ति हो जाती परन्तु ऐसा होता नहीं / जीवात्मा को कर्म सम्बंध करवाने वाली जो कर्मबंध की योग्यता है, उसका अत्यन्त बल होता हैं, जो संसारवृद्धि का कारण बनता है। उससे भवपरम्परा की निवृत्ति नहीं होती, इसलिये ऐसी पूर्वसेवा को निरूपयोगी-औपचारिक कहा है (कारण में कार्य का आरोप) और वह जो पूर्वसेवा संसार की निवृत्ति का हेतु न हो, उसे मुख्य कैसे कह सकते हैं ? // 183 // सङ्क्लेशायोगतो भूयः कल्याणाङ्गतया च यत् / तात्त्विकी प्रकृतिज्ञेया तदन्या तूपचारतः // 184 // अर्थ : तीव्र क्लेश रहित, कल्याण का अंगरूप होने से ही प्रकृति को तात्त्विक-वास्तविकआत्मा के स्वभाव रूप जानना चाहिये, इससे अन्य को तो, उपचार से (प्रकृति) कहा है // 18 //