________________ 112 योगबिंदु यहाँ शंका होती है कि जब पुनर्बन्धकों की पूर्वसेवा वास्तविक नहीं होती तो उसे पूर्वसेवा ही क्यों कहना चाहिये / उसी का उत्तर देते हैं कि कृतश्चास्या उपन्यासः शेषापेक्षोऽपि कार्यतः / नासन्नोऽप्यस्य बाहुल्यादन्यथैतत्प्रदर्शकः // 180 // अर्थ : इसका (पूर्वसेवा का) उपन्यास शेषजीवों (पुनर्बन्धकों) की अपेक्षा से (कारण में कार्य के उपचार से) किया है / इसकी (पुनर्बन्धक की) (मुक्ति) आसन्न-समीप न होने पर भी प्रायः अन्य अवस्था में यह (पूर्वसेवा) कदाचित मुक्ति की आसन्नता का कारण बनें // 180 // विवेचन : यहाँ पूर्वसेवा के दो भेद किये हैं- वास्तविक और औपचारिक / किसी को शंका होती है कि जब पुनर्बन्धकों की पूर्वसेवा वास्तविक नहीं है तो उसे पूर्वसेवा का नाम ही क्यों देना चाहिये / उसी का उत्तर देते हैं कि यहा हमने औपचारिक पूर्वसेवा को जो पूर्वसेवा नाम दिया है, वह शेषजीवों यानि पुनर्बन्धकों की अपेक्षा से, कारण में कार्य का आरोप करके, किया है / यद्यपि अभी-अभी वर्तमान काल में पुनर्बन्धकों की पूर्वसेवा मुक्ति के समीप नहीं ले जाने वाली है तथापि भविष्य में वह पूर्वसेवा साधक को धीरे-धीरे अपुनर्बन्धकभाव को प्राप्त करवाने में अथवा परम्परा से मोक्ष का कारण होने से, हमने कारण में कार्य का आरोप किया है / इसलिये पुनर्बन्धकों की औपचारिक पूर्वसेवा को पूर्वसेवा कहा है जैसे "नड़वलोदकं पादरोगः" नड़वलतृण का पानी ही पादरोग है / वैसे तो नड़वलतृण का पानी पीने वाले को पैर का रोग होता है परन्तु संसार में कारण में कार्य का उपचार लोक प्रसिद्ध हैं / इसी प्रकार पुनर्बन्धकों की पूर्वसेवा वास्तविक श्रद्धाभक्ति युक्त न होने पर भी भविष्य में तात्त्विक पूर्वसेवा में कारण बन सकती हैं, अत: यह कारण में कार्य का आरोप हैं // 180 // शुद्धयल्लोके यथा रत्नं जात्यं काञ्चनमेव वा / गुणैः संयुज्यते चित्रैस्तद्वदात्माऽपि दृश्यताम् // 181 // __ अर्थ : लोक में शुद्ध किया हुआ अकृत्रिम - सच्चा स्वर्ण और रत्न जैसे अद्भुत (कान्त्यादि) गुणों से देदीप्यमान हो उठते है, उसी प्रकार आत्मा का भी समझें // 181 // विवेचन : संसार में विविध बहुमूल्य रत्न और स्वर्ण जब खान से बाहर निकाले जाते हैं, उस समय पता नहीं चलता कि ये रत्न और स्वर्ण इतने मूल्यवान और चमकदार होंगे / वे मिट्टी जैसे ही होते हैं; अनेक प्रकार की कुधातुओं से मिश्रित होते हैं, फिर धीरे-धीरे ताड़न, तापन आदि अनेक क्रियाओं में से उन्हें गुजरना पड़ता है। हीरा घिसने वाले जब हीरे को अच्छी तरह से घिस लेते हैं और सुनार जब स्वर्ण को संपूर्ण शुद्ध कर लेता है, तब वह देदीप्यमान, आकर्षक, मनमोहक हीरा, रत्न और स्वर्ण बनता है। इसी प्रकार आत्मा अनादिकाल से कर्मग्रहण करने की अपनी योग्यता