________________ योगबिंदु 111 भवाभिनन्दिदोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्युतः / वर्धमानगुणप्रायो ह्यपुनर्बन्धको मतः // 178 // अर्थ : भवाभिन्दी दोषों के विरोधी, गुणों से सम्पन्न और जिनके गुण प्राय: क्रमशः वृद्धि पायें, उन्हें अपुनर्बन्धक (धर्माधिकारी) कहा है // 178 // क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः / अज्ञो भवाभिनन्दिस्यान्निष्फलारम्भसंगतः // 87 // उपरोक्त सभी दोष भवाभिनन्दी के गिनाये हैं / क्षुद्र-स्वभावी, लोभी, दीन, ईर्षालु, भयभीत, कपटी और अज्ञानी जीवों को भवाभिनन्दी कहते हैं / उनका हर एक प्रयास निरर्थक होता है / इन दोषों से विरोधी गुणों अर्थात् उदारता, निर्लोभता, अदीनता, अमत्सर, निर्भयता, सरलता, विवेक, ज्ञानादि गुणों से युक्त तथा शुक्लपक्ष की चन्द्रकला की भाति उत्तरोत्तर विकसित गुणवाले जीवों को अपुनर्बन्धक (धर्माधिकारी) कहा है / अर्थात् उदारता, दाक्षिण्यता, विनय, विवेक आदि गुण धीरेधीरे बढ़ते ही जाते हैं / ऐसे जीवों के द्वारा की गई देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप, व्रत, पच्चखाण, दान, पुण्य आदि उत्तमकोटि के होते हैं / और भावों की विशेष शुद्धि होने से अपुनर्बन्धक जीव संसार में अधिक समय तक भटकना पड़े ऐसे भयंकर कर्म नहीं बांधते / ऐसे अपुनर्बन्धक जीव ही धर्म के अधिकारी है // 178|| अस्यैषा मुख्यरूपा स्यात् पूर्वसेवा यथोदिता / कल्याणाशययोगेन शेषस्याप्युपचारता // 179 // अर्थ : कल्याण आशय से युक्त होने से इसकी (अपुनर्बन्धक की) पूर्वोक्त पूर्वसेवा मुख्य (वास्तविक) होती है और शेष-अन्य की औपचारिक // 179 // विवेचन : अपुनर्बन्धकों का आशय सदा कल्याणकारी होता हैं / वैराग्य-सच्चे ज्ञान से परिपूर्ण होता है और भावों की शुद्धि होती है / इसलिये पूर्व में जो पूर्वसेवा बताई है - देवपूजा, गुरुभक्ति, सदाचार, शील, दान, दया, तप, जप, व्रत-पच्चखाण आदि वह उनकी वास्तविक होती है अर्थात् अपुनर्बन्धकों के द्वारा की गई पूर्वसेवा मोक्षलक्षी होती है, इसलिये वह क्रिया मोक्ष में जोड़ देती है। पूर्व में योग का जो लक्षण बताया है "मोक्षेण योजनात् योग" वह लक्षण इसमें पूरा घटित होता है, इसलिये उनकी पूर्वसेवा ही वास्तविक है। अपुनर्बन्धकों से अन्य जो पुनर्बन्धक, सकृतबंधक, असकृत्बंधक है उनकी पूर्वसेवा औपचारिक कही है, क्योंकि इनमें वैसे पारमार्थिक वैराग्य का अभाव होता है; उनकाआशय निर्मल नहीं होता / अपुनर्बन्धक वह है जो कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को पुनः नहीं बांधता // 179 //