________________ 110 योगबिंदु आसन्ना चेयमस्योच्चैश्चरमावर्तिनो यतः / भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्तास्तदेकोऽत्र न किंचन // 176 // अर्थ : इसीलिये (मुक्ति आसन्न होने से) भावसार (तत्त्वपरिणति प्रधान) और अपेक्षा (अनाभोग) रहित प्राणियों को योगशास्त्रज्ञों ने अपुनर्बन्धक (सम्यक्दृष्टि और चारित्री) कहा हैं // 176 // अर्थात् चरम आवर्त में आये हुये जीवात्माओं की मुक्ति नजदीक में आई हुई (आसन्न) ज्ञान की क्योंकि संसार में प्रत्येक प्राणी के अन्तिम (चरम) के अलावा अनेक परावर्त हुये हैं व उनमें अनंत भवों के अनंत दुःख भोगे हैं। उसकी अपेक्षा से अंतिम आवर्त में कुछ ज्यादा भोग्य शेष नहीं रहा है // 176 // विवेचन : चरमावर्ती जीवों को मुक्ति आसन्न-समीप होती है। अर्थात वे दो तीन भवों में ही सिद्ध होने वाले होते हैं, इसीलिये उनके चढ़ते परिणाम होते हैं। वे तात्त्विक बुद्धि प्रधान होते है; तत्त्व मोक्ष के प्रति राग रखने वाले होते हैं / मुक्ति में प्रेम होता है और अनाभोग रहित अर्थात् विवेक से चरमावर्ती के लिये मुक्ति अत्यन्त समीप है; क्योंकि उसके अनेकों आवर्त व्यतीत हो चुके हैं; अब तो एक ही शेष बचा है, वह तो कुछ भी नहीं है // 176 / / अत एव च योगज्ञैरपुनर्बन्धकादयः / भावसारा विनिर्दिष्टास्तथापेक्षादिवर्जिताः // 177 // अर्थ : जो शून्य नहीं होते, विवेक प्राप्त ऐसे जीवों को, योगियों ने अपुनर्बन्धक-धर्माधिकारी, सम्यक्दृष्टि और चारित्री कहा है अर्थात् ऐसे जीव ही योग को प्राप्त कर सकते हैं // 177 // विवेचन : जिनकी मुक्ति समीप है; ऐसे भव्य प्राणी अधिक से अधिक चरमपुदगल परावर्त अथवा अर्धपुद्गलपरावर्त पर्यन्त ही संसार में रहते हैं, क्योंकि उनके कर्मदल बहुत ही अल्प होते हैं; चूँकि अनादि काल से निगोद - जो कि अव्यवहार राशि कही जाती है से लेकर व्यवहार राशि, पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पतिकाय, नरक, तिर्यञ्च, आदि चौरासी लाख जीवयोनि में अनन्त-अनन्त जन्म-मरण करके, जीव अनन्त भवभ्रमण कर चुका है और अनन्त दुःखों को सहन कर चुका है। उनकी अपेक्षा से यह चरमावर्त का दुःख कुछ भी नहीं है। कदाचित प्रमादवश सम्यक्त्व दृष्टि जो प्राप्त की हो, उसे भूल जाय, उसका वमन कर दे, तो भी अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार में भ्रमण करके, संसार का अन्त करने वाले होते हैं अत: अनन्त पुद्गलपरावर्त की अपेक्षा से यह इतना भयंकर नहीं होता // 177 //