________________ योगबिंदु 109 जब जीव आता है; तब कर्मबंधन तो अवश्य होता है, लेकिन मोक्ष मार्ग में राग होने से वे किसी प्रकार की रूकावट नहीं डालते, उसे खिन्न नहीं करते / कर्मबंधन कमजोर होते हैं, इसलिये चरमावर्ती जीव उसपर स्वयं प्रभुत्व रखते हैं // 173 / / सिद्धेरासन्नभावेन यः प्रमोदो विजृम्भते / चेतस्यस्य कुतस्तेन खेदोऽपि लभतेऽन्तरम् // 174 // __ अर्थ : सिद्धि समीप होने से (विद्या साधक के) हृदय में जो खुशी पैदा होती है, उससे खेद को अवकाश ही कहाँ से होता है // 174 / / विवेचन : विद्या साधक को जब यह अनुभव होने लगता है कि अल्प समय में मेरी सर्व विद्या सिद्ध होने वाली है, तब उसके चित्त में जो खुशी-आनन्द उछलता है, उसको वही जान सकता है; उसका वर्णन करना असम्भव है। ऐसे अवर्णनीय आनन्द के सामने खेद को स्थान ही कहाँ है? अर्थात् सफलता की खुशी में साधना काल में उपस्थित होने वाली विभीषिकाएं उपसर्ग, परिषह, अनेकविध कष्ट सभी भूल जाते हैं / मनुष्य का स्वभाव है कि वह भविष्य की खुशी में भूतकाल के दुःखों को भूल जाता है / इस दृष्टान्त से ग्रंथकर्ता यह कहना चाहते हैं कि इसी प्रकार चरमावर्ती जीव को मोक्षसिद्धि समीप होने से कर्मजन्य दुःखों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता / वे उनकी परवाह नहीं करते // 17 // न चेयं महतोऽर्थस्य सिद्धिरात्यन्तिकी न च / मुक्तिः पुनः द्वयोपेता सत्प्रमोदास्पदं ततः // 175 // __ अर्थ : न यह सिद्धि महान अर्थ को सिद्ध करने वाली हैं; न ही सतत् साथ रहने वाली है, लेकिन मुक्तिरूपी सिद्धि तो दोनों से (महान अर्थ को देने वाली और सतत् साथ रहने वाली है) युक्त है इसलिये वही सर्वोत्कृष्ट प्रमोदास्पद है // 175 / / विवेचन : प्रज्ञप्ति, रोहिणी आदि विद्याओं की सिद्धि से साधक को कोई महान लाभ नहीं होता / वे केवल इसी भव में अल्पसमय तक साथ रहती हैं परभव में वे काम नहीं आती / इससे केवल अज्ञानीजन ही आश्चर्यमुग्ध होते हैं। ऐसे साधक चतुर्गति के दुःखों को दूर करने में असमर्थ हैं / परन्तु आप्तपुरुषों ने जो मुक्तिरूपी सिद्धि बताई है, वह तो संसार भ्रमण के तमाम दुःखों को काटने वाली है। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करवाती है और सतत्-शाश्वत साथ रहने वाली है। उसकी प्राप्ति होने पर कभी भी उसका विच्छेद नहीं होता। द्रव्य से सर्वकर्मक्षय रूप और भाव से सच्चिदानन्दमय-अनन्तसुख समृद्धिरूप अवस्था, सद-शाश्वत्, चित्-ज्ञान और आनन्दस्वरूप मुक्ति, सर्वोत्कृष्ट प्रमोद का स्थान है / इसलिये यह मुक्तिसिद्धि महान है, शाश्वत है। तात्पर्य है कि लौकिक सिद्धियाँ तो क्षणिक और तुच्छ है, परन्तु मुक्ति तो शाश्वत् और महान है // 175 / /