________________ योगबिंदु 107 अर्थ : क्योंकि अन्य मुक्तिमार्गावलम्बियों ने भी (अपने-अपने) दर्शनभेद से इसे (कर्मबंध योग्यता को) दिदृक्षा, भवबीज आदि शब्दों से स्वीकारा है // 169 / / विवेचन : मोक्षमार्ग में विश्वास रखने वाले अन्य सभी दर्शनकारों ने भी आत्मा की इस योग्यता को स्वीकारा है। सांख्यदर्शन वाले इसे 'दिदृक्षा' (आत्मा की प्रकृति के विलासों को देखने की इच्छा) कहते हैं / शैव दर्शनकार इसे 'भवबीज' कहते हैं / वेदान्ती इसी को अविद्या नाम से पुकारते हैं / बौद्ध इसे 'अनादि क्लेशमय वासना' नाम देते हैं / सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने दर्शनशास्त्र में दिदृक्षा, भवबीज, अविद्या, अनादि क्लेशवासना आदि विभिन्न नामों से उसी की सिद्धि की है, जिसे हमने स्व-स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार, जीव को संसार में रहने का कारण, एकमात्र 'आत्मा की कर्मबंध योग्यता' कहा है। केवल नाम भेद है वस्तुतत्त्व में कोई भेद नहीं है, क्योंकि सभी का साध्य मात्र मोक्ष ही है। ऐसे मुमुक्षुओं के शुभ अध्यवसाय किसी भी भाषा में हों, बाह्य रूप से चाहे कितने भी भिन्न हों, अन्दर से वस्तुतत्त्व एक ही होता है। संसार में रहने का जो कारणभूत कर्ममल है, उसे किसी भी नाम से पुकारें कोई अन्तर नहीं पड़ता // 169|| एवं चापगमोऽप्यस्याः प्रत्यावर्त सुनीतितः / स्थित एव तदल्पत्वे भावशुद्धिरपि ध्रुवा // 170 // अर्थ : इस प्रकार इसका (योग्यता का) अपगम-हास भी प्रत्येक आवर्त में युक्तिपूर्वक घटिता होता है और उसके अल्प होने पर भावशुद्धि भी निश्चित ही सिद्ध होती है // 170 // विवेचन : कर्मबंधन में कारणभूत इस योग्यता का प्रत्येक आवर्त में क्रमशः हास होता है / युक्ति सिद्ध है कि जब तक इस योग्यता का हास अर्थात् कर्मबंधन कमजोर नहीं पड़ता तब तक संसार भ्रमण की प्रवृत्ति नष्ट नहीं होती / जैसे-जैसे यह योग्यता कमजोर पड़ती है वैसे-वैसे भावों की, अध्यवसायों की, परिणामों की उत्तरोत्तर शुद्धि निश्चित होती है / जितनी भावों की शुद्धि अधिक उतनी यह योग्यता-कर्मबंधन अल्प होता है, यह बात युक्ति पूर्वक सिद्ध है। अगर योग्यता को कर्मबंधन में कारण न माने तो कर्ममल कभी जाय ही नहीं / व्यक्ति कभी भी मुक्त नहीं बने // 170 // ततः शुभमनुष्ठानं सर्वमेव हि देहिनाम् / / विनिवृत्ताग्रहत्वेन तथाबन्धेऽपि तत्त्वतः // 171 // अर्थ : उससे (भावशुद्धि होने से) निश्चित ही बंध अल्प-अल्पतर होने पर, कदाग्रह छूट जाता है और तब जीवात्माओं के सभी अनुष्ठान कल्याणकारी होते हैं // 171 // विवेचन : जीव के अध्यवसाय जब निर्मल होते हैं तब कर्मबंध अल्प-अल्पतर होता है।