________________ 106 योगबिंदु तदन्यकर्मविरहाद् न चेत् तद्बध इष्यते / तुल्ये तद्योग्यताऽभावे न तु (नु) किं तेन चिन्त्यताम् // 167 // अर्थ : पूर्वकालीन कर्म बिना बंध (वर्तमानकालीन) इष्ट नहीं; इसके बारे में विचार करें तो योग्यता का अभाव दोनों में तुल्य है। उससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता // 167 // विवेचन : अगर आत्मा के वर्तमान कालीन कर्मबंध में पूर्व कालीन कर्म को हेतु न माने तो कर्म आदिभूत हो जाता है और वह आदिभूत बंध किसी को भी इष्ट नहीं, क्योंकि ऐसा मानने से सर्वबंधनों से मुक्त परमात्मा, ईश्वर आदि को भी कर्मबंध पड़ेगा। फिर संसारी और मुक्त में कोई अन्तर नहीं रहेगा / इसलिये स्वभाव की योग्यता को मानना ही उचित है, क्योंकि पूर्वसञ्चित कर्मों के भोग के समय भी, नया-नया कर्मबंध जीव अपनी स्वभाव की योग्यता के अनुसार ही बांधता है / इसलिये अनादि की कर्म-परम्परा, नये-नये कर्मबंध में योग्यता के कारण ही, हेतुत्वभाव को प्राप्त करती है। योग्यता को स्वीकार न करने से तुम्हारे मत की भी सिद्धि नहीं होती, अतः विचार यह करना चाहिये कि अगर पूर्वकालीन कर्म-बंध को न माना जाय अर्थात् पूर्व काल में आत्मा पूर्णशुद्ध थी ऐसा माने और उसी आत्मा को वर्तमान काल में कर्मबंध की कल्पना करना, उसका अर्थ क्या है ? कुछ भी नहीं / तात्पर्य यह है कि अगर योग्यता के बिना सर्व संसारी जीवों को कर्मबंध हो सकता है तो मुक्त को भी होगा क्योंकि योग्यता का अभाव संसारी और मुक्त दोनों में तुल्य है / उनको पूर्व कालीन कर्मबंध का अभाव मानकर, उत्तरकालीन कर्मबंध की कल्पना करने से क्या लाभ हैं ? // 167 // तस्मादवश्यमेष्टव्या स्वाभाविक्येव योग्यता / तस्यानादिमती सा च मलनान्मल उच्यते // 168 // अर्थ : इसलिये आत्मा की उस स्वाभाविक योग्यता को अवश्य मानना चाहिये / अनादिकालीन वह योग्यता आत्मा को मलीन करती है, इसलिये उसे मल कहते हैं // 168 // विवेचन : योग्यता को स्वीकार न करने पर अतिव्याप्ति दोष आता है, इसलिये आत्मा की उस स्वाभाविक योग्यता को अवश्य स्वीकार करना चाहिये / वह योग्यता जीवात्मा के स्वभावरूप होती है और अनादिकाल से आत्मा के साथ रहकर, आत्मा को मलीन करती है। कर्मबंध में वही मुख्यरूप से हेतु बनती है। वह कर्मबंध की योग्यता आत्मा को अनादिकाल से मलीन करती है इसलिये इस कर्मबंध की योग्यता को महापुरुषों ने मल भी कहा हैं, कर्ममल कहा है // 168 // दिदृक्षाभवबीजादिशब्दवाच्या तथा तथा / इष्टा चान्यैरपि ह्येषा मुक्तिमार्गावलम्बिभिः // 169 //