________________ योगबिंदु 105 सम्बंध सादि सान्त भी है / जीव की योग्यता बिना वह कर्मबंध कभी भी सम्भव नहीं हो सकता इसलिये जीव तथा कर्म का अनादि काल का जो संयोग सम्बंध है वह जीव की योग्यता से ही सम्भव हैं // 164 // अनादिमानपि ह्येष बन्धत्वं नातिवर्तते / योग्यतामन्तरेणापि भावेऽस्यातिप्रसङ्गता // 165 // अर्थ : यह बंध (आत्मा और कर्म का सम्बंध) अनादि होने पर भी बंधत्वरूप योग्यता का उल्लंघन नहीं करता, क्योंकि योग्यता बिना इसके (बंध के) होने में अतिव्याप्ति दोष होता है // 165 // विवेचन : प्रवाह की अपेक्षा से अनादिकालीन (आत्मा और कर्म का सम्बंध) बंध भी बंधत्व रूप योग्यता की अपेक्षा रखता है, क्योंकि ऐसा मानने से अतिव्याप्ति दोष नहीं आता / कहा भी है : "यो यो बंधः बध्यमानयोग्यतामपेक्षते" / जो-जो भी कर्मबंध होता है, वह सर्वकर्मदल, कर्म बांधने वाले जीव के स्वभाव की योग्यता की अपेक्षा रखता है। जैसे सूती या ऊनी कपड़ा अपनी योग्यतानुसार ही मजीटी या किरमची आदि रंग को पकड़ता है, वैसे ही जीव अपने स्वभाव की योग्यता के अनुसार ही वैसा कर्म बांधता है। अगर ऐसी स्वभाव की योग्यता को न स्वीकारें, अर्थात् आत्मद्रव्य और कर्म-द्रव्य की ही अकेली सत्ता स्वीकारें, तो सिद्ध, मुक्त, परमात्मा को भी कभी कर्मसंयोग हो सकता है अतः यहाँ अतिव्याप्ति दोष आता है / इसलिये योग्यता को स्वीकार करना ही चाहिये // 165|| एवं चानादिमान् मुक्तो योग्यताविकलोऽपि हि / बध्येत कर्मणा न्यायात् तदन्याऽमुक्तवृन्दवत् // 166 // अर्थ : इस न्याय से (अर्थात् स्वभाव की योग्यता न स्वीकारना) तो योग्यता रहित अनादि मुक्त आत्मा संसारी आत्मायें की भांति पुनः कर्म से बंध जायेग // 166 / / विवेचन : अगर स्वभाव की योग्यता न स्वीकारें तो अनादिमान जो मुक्त आत्मा है, वह योग्यतारहित होने पर पुनः बंध में (संसार में) पड़ेगा, क्योंकि बंध योग्यता की अपेक्षा बिना, स्वयं ही लागु हो जायगा / जब स्वभाव की योग्यता ही नहीं माननी, तब जिस कारण से संसारी को बंध संभव हो सकता है वैसा मुक्त आत्माओं को भी बंध होगा, इस प्रकार अतिव्याप्ति दोष हो जाता है / अन्य दर्शनकार आत्मा को नित्यमुक्त, योग्यता बिना स्वीकार करते हैं, उनको ग्रंथकार ने कहा है कि अगर स्वभाव की योग्यता न स्वीकारें तो संसारी व्यक्तियों की भांति मुक्त आत्मायें भी संसार में बंध जायगें। संसारी हो जायेंगे // 166 / /