________________ 104 योगबिंदु विवेचन : चरमावर्त से अन्य आवर्तों में व्यक्ति जो भी धर्मानुष्ठान करता है; वह धन-सम्पत्ति, यशकीर्ति तथा देव-देवेन्द्र की ऋद्धि आदि इहलौकिक-पारलौकिक प्रलोभनों से आकृष्ट होकर करता है। जो कि उसके पतन का कारण बनते हैं / इसलिये ऐसे विष और गरल अनुष्ठानों को करने वाली आत्माओं में मोक्ष का कारणभूत जो योग है उसकी योग्यता नहीं होती, लेकिन चरमावर्त में आने पर जीवों का मल अल्प रह जाता है; श्रद्धा और भावना की उत्तरोत्तर वृद्धि और शुद्धि होती जाती है; मुक्ति के प्रति राग होता है, ऐसी स्थिति में जीव जो भी धर्मानुष्ठान तप, जप, व्रत, पच्चखाण, देवपूजा, गुरुभक्ति आदि करता है, वह अध्यवसायों की विशेष शुद्धि के कारण अचरमावर्ती कर्ताओं से विशिष्ट हो जाता है। उसका अनुष्ठान भी उन अचरमावर्तियों से विशिष्ट प्रकार का होता है क्योंकि निर्वाणैकाभिलाषा मात्र रह जाने से योग की योग्यता उसमें (चरमावर्ती में) होती हैं, आ जाती हैं // 16 // चतुर्थमेतत् प्रायेण ज्ञेयमस्य महात्मनः / सहजाल्पमलत्वं तु, युक्तिरत्र पुरोदिता // 163 // अर्थ : चतुर्थ (तद्हेतु) अनुष्ठान प्रायः चरमावर्ती महात्माओं का समझे इसमें सहज अल्पमलत्वरूप हेतु पहले कह दिया है // 163 // विवेचन : पांच प्रकार के अनुष्ठानों में चौथा तद्हेतु अनुष्ठान है / जीव जब चरमपुद्गलपरावर्त में आता है; उस समय वह जो भी तप, जप, देवगुरु की सेवाभक्ति करता है वह प्रायः तद्हेतु अनुष्ठान माना जाता है, क्योंकि चरमावर्त में आते-आते स्वभावतः ही उसकी आत्मा कर्ममल से हलकी हो जाती है, निर्मल हो जाती है। (यह बात पूर्व में 152 वें श्लोक में कह चुके हैं ) // 163 // सहजं तु मलं विद्यात् कर्मसम्बन्धयोग्यताम् / आत्मनोऽनादिमत्त्वेऽपि नायमेनां विना यतः // 164 // अर्थ : कर्म सम्बंध की योग्यता ही सहज मल है, क्योंकि आत्मा का और कर्म का अनादि काल से जो संयोग सम्बंध है, वह योग्यता बिना सम्भव नहीं // 164 / / विवेचन : संसारी आत्मा में सहज कर्म मल होता है। वह सहज कर्ममल आत्मा के साथ उसकी तथाप्रकार की योग्यता से ही सम्बन्धित होता है / कर्म सम्बंध की योग्यता अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अन्तराय इन आठ प्रकार के कर्मों का संयोग सम्बंध आत्मा के साथ होता है वह उसकी योग्यता से ही होता है / वह योग्यता अनादि होने से कर्मबंध भी अनादि माना गया है / प्रवाह की अपेक्षा से (अन्य अपेक्षा) से समयसमय पर जीव को कर्म का बंध होता रहता है और कर्म का क्षय भी चालु रहता है अत: यह