________________ योगबिंदु 103 अर्थ : श्रेष्ठ मुनियों ने जिनेश्वर प्ररुपित, शुद्ध श्रद्धाप्रधान, अत्यन्त संवेगगर्भित (निर्वाणैकाभिलाषयुक्त) अनुष्ठान को अमृत क्रिया कहा है // 160 // विवेचन : सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की सेवा-भक्ति रूप जो पूर्वसेवा है उसे जब खूब शुद्ध श्रद्धा पूर्वक अर्थात् इहलोक, परलोक सम्बंधी संपूर्ण वासनाओं, कामनाओं, आसक्तियों का त्याग करके, केवल निर्वाणाभिलाषा को अपना लक्ष्य बना कर, जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्ररूपित एवं उनकी आज्ञानुसार उच्चभावना तथा सत्य एवं श्रद्धा पूर्वक जो अनुष्ठान किया जाता है, उसे मुनिपुङ्गव महापुरुष अमृतक्रिया कहते हैं अर्थात् ऐसी क्रिया जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त करवाती हैं / जब संसार की संपूर्ण आसक्ति दूर हो जाती है और केवल मुक्त होने की ही एकमात्र अभिलाषा रह जाती हैं, तब ऐसी स्थिति में जो धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है वह अमृत जैसा शाश्वत् सुखशान्ति का देने वाला होता है। ऐसी क्रिया से व्यक्ति अमर हो जाता है, क्योंकि इसमें भाव श्रेष्ठ कोटि के होते हैं / श्रेष्ठ भावों से श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती हैं // 160 // एवं च कर्तृभेदेन चरमेऽन्यादृशं स्थितम् / पुद्गलानां परावर्ते गुरुदेवादिपूजनम् // 161 // अर्थ : इस प्रकार कर्ता भेद से चरमपुद्गलपरावर्त में गुरुदेवादि का पूजन विलक्षण प्रकार का ही होता है // 16 // विवेचन : जैसे विष, गर, अननुष्ठान, तद्हेतु और अमृत इन पांच भेदों में साधक की उत्तरोत्तर भाव की वृद्धि और मल का क्षय ही कारण है, क्योंकि सेवा वही की वही फिर भी उसमें भेद पड़ते हैं / उसी प्रकार अतीव अल्प मल वाले चरमावर्त में सेवा (धर्मानुष्ठान) में जो विलक्षण परिवर्तन होते हैं, वह कर्ता की अपेक्षा से होते हैं, स्वरूप से भेद नहीं पड़ते / चरमावर्त में रहने वाले जीव तथा चरमावर्त से अन्य आवर्तों में रहने वाले जीवों में, तथाप्रकार की योग्यता के अनुसार, मोक्ष अथवा मोक्षमार्ग के प्रति अद्वेष या द्वेषरूप अध्यवसायों के कारण ही देवगुरूपूजादिरूप पूर्वसेवा में विलक्षण बहुत भेद पड़ जाते हैं / उसका मूल कारण यही हो सकता है कि अद्वेष से तद्हेतु और अमृत अनुष्ठान होता है और द्वेष से विष, गरल और अननुष्ठान किया होती हैं। इसलिये कहा है कि चरमपुद्गलपरावर्त में रहने वाले प्राणियों की देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप, ध्यान आदि मुक्ति के लिये होने से मुक्तिरूप है और अन्यों से विलक्षण होते हैं // 161 // यतो विशिष्टः कर्ताऽयं तदन्येभ्यो नियोगतः / तद्योगयोग्यताभेदादिति सम्यग्विचिन्त्यताम् // 162 // अर्थ : क्योंकि यह (चरमावर्ती) कर्ता उसकी योग योग्यता के कारण अन्य (अचरमावर्ती कर्ताओं) से निश्चित ही विशिष्ट है, इसे अच्छी तरह से विचार करें // 162 //