________________ 102 योगबिंदु संमुच्छिम प्राणियों की भांति अत्यन्त मोहदशा का उदय होने से ऐसे प्राणियों की चित्त की दशा अत्यन्त मूढ होती है। ऐसे अनुष्ठानों से आत्मा को कोई भी उत्तम लाभ नहीं मिलता। जैसे वीरा सालवी को कोई लाभ नहीं मिला: भगवान् श्री नेमिनाथजी द्वारका में समवसरण स्थित थे, तब श्रीकृष्ण ने भगवान को भावोल्लास पूर्वक बड़े राजकीय ठाठ से जुलूस के साथ पांच अभिगम पूर्वक उन्हें वन्दन किया / उनके साथ केवल, कौतुहल बुद्धि से, वीरा नामक किसी जुलाहे ने भी देखा-देखी वन्दन की चेष्टा की। श्री कृष्ण ने भगवान से प्रश्न किया कि देवगुरु के वन्दन से क्या लाभ होता हैं ? भगवान ने कहा, भावपूर्वक वन्दन करने वाला संसार का नाश करता है / इसलिये तुम आने वाली चौवीसी में अमम नामक १२वें तीर्थंकर बनोगे और मोक्षलक्ष्मी के अधिकारी बनोगे / फिर श्री कृष्ण ने पूछा मेरी भांति इस वीरा सालवी ने भी वन्दन किया है क्या उसे भी वैसा ही लाभ होगा? तब भगवान् ने कहा कि उसने तो केवल काय-क्लेश ही किया है। उसकी वन्दन क्रिया में तुम्हारे जैसी भावना का अमृत नहीं था / अतः उसे अन्य लाभ नहीं मिल सकता। कारण, उपयोग बिना की क्रिया निष्फल है। इसलिये यह अनुष्ठान क्रिया भी हेय है, त्याज्य है। ऐसी विवेकशून्य अन्धक्रिया कभी-कभी घातक भी बन जाती है, इसलिये उसे महापुरुषों ने हेय बताया है // 158|| एतद्रागादिदं हेतुः श्रेष्ठो योगविदो विदुः / सदनुष्ठानभावस्य शुभभावांशयोगतः // 159 // अर्थ : पूर्वसेवादि (तात्त्विक अनुष्ठान) के उपर जो राग होता है, उसे योगविशारदों ने सदनुष्ठान का उत्तम हेतु कहा है क्योंकि उसमें शुभभाव-सद्भाव का अंश विद्यमान हैं॥१५९॥ विवेचन : चतुर्थ भेद है तद्हेतु किया। इसमें मुख्य दो तथ्य हैं, एक तो मुक्ति-अद्वेष अर्थात् मुक्ति के प्रति राग; और दूसरा मुक्ति के लिये परम्परा से जो निमित्त कारण हैं तथा योग का जो मुख्य अंग पूर्वसेवादि (सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की आराधना रूप जो पूर्व सेवादि) है, उस पर परम, अपूर्व प्रेम, आदर, बहुमान पैदा होना और उसे जीवन में क्रियात्मक रूप देना, अर्थात् सत् की श्रद्धा और सत्य पर आचरण करना / सदनुष्टान का उत्तम हेतु होने से इसे हेतु कहते हैं / इसमें मुक्ति अद्वेषरूप सद्भाव का अंश रहता है, इसलिये वह सद्भाव का हेतु हैं / इसलिये योग विशारदों ने इसको सदनुष्ठान का मुख्य हेतु बताया है, क्योंकि यह मोक्षमार्ग का परम्परा से हेतु है। ऐसे अनुष्ठानों के मूल में व्यक्ति की शुद्ध भावना, शुद्ध अध्यवसाय का मुख्य ध्येय मोक्ष रहा हुआ है। मोक्ष के साथ सम्बंध कराने वाले सभी अनुष्ठान सराहनीय हैं // 159 // जिनोदितमिति त्वाहुर्भावसारमदः पुनः / संवेगगर्भमत्यन्तममृतं मुनिपुङ्गवाः // 160 //