________________ योगबिंदु 101 करते हैं और कालान्तर भवान्तर में आत्मा का पतन कराते हैं इसलिये बुद्धिमानों ने इसे गरल अनुष्ठान नाम दिया हैं। विवेचन : दिव्यभोगों की अभिलाषा से अर्थात् मैं स्वर्ग में जन्म लं; दिव्यरूपवाली सुन्दर अप्सराओं का स्वामी बन; दिव्य भोगों को भोगुं; स्वर्ग में अपार सुखसम्पत्ति वैभव विलास, सुख के तमाम साधन मुझे प्राप्त हों / इस प्रकार की दिव्यभोगों की चित्त में अभिलाषा रखकर, जो व्यक्ति धर्मानुष्ठान-देवपूजा गुरुभक्ति, पंच महाव्रतों को धारण करे अथवा श्रावक के 12 व्रतों को धारण करे, दान दे, तप करे, जप करें, सर्वजीवों को प्रति दयाभाव रखें; परोपकार करे, इहलोक सम्बंधी सभी प्रकार के भोगों पर संयम रखें; उनकी अभिलाषा न करे; अनेक परिषह-कष्ट सहन करे, विविध प्रकार के अनुष्ठान करें तो भी बुद्धिमानों ने इसे गरल अनुष्ठान कहा है। क्योंकि विहीन नीति-अर्थात् शुद्ध परिणामों का घातक होने से तथा भविष्य में (भवान्तर में) आत्मा को भान भुलाने वाला होने से योगी इसे गरल अनुष्ठान कहते हैं / विष और गरल दोनों एक ही प्रकार के जहर हैं लेकिन विष जैसे तत्काल प्राण हरण करता है जबकि गरल धीरे-धीरे प्राणों का हरण करता है उसी प्रकार गरल अनुष्ठान तात्कालिक नहीं, भवान्तर में आत्मा को भान भूला देता है और उसके शुद्ध परिणामों का नाश करता है। इसलिये दोनों ही प्रकार के अनुष्ठान मनुष्य के पतन के कारण हैं इसलिये दोनों ही त्याज्य है। इहलोक सम्बंधी भोगों की अभिलाषा से जो धर्मक्रिया की जाती है वह विष कहलाती हैं क्योंकि उस का फल तात्कालिक मिल जाता है। गरल क्रिया परलोक सम्बंधी भोगों को लक्ष्य में रखकर की जाती है और वह भवान्तर में आत्मा के पतन का कारण बनती है। जिनको यथार्थ सम्यक् दर्शन नहीं हुआ वैसे दीर्घ संसारी भवाभिनन्दी जीवों को ही विष और गरल अनुष्ठान सम्भव है। जो जीव दो-तीन भवों में मोक्ष जाने वाले हैं उनको विष और गरल अनुष्ठान सम्भव नहीं है // 157|| अनाभोगवतश्चैतदननुष्टानमुच्यते / संप्रमुग्धं मनोऽस्येति ततश्चैतद् यथोदितम् // 158 // अर्थ : विवेकशून्य व्यक्ति की धर्मक्रिया को अननुष्ठान कहा है क्योंकि उसका मन संप्रमुग्ध अर्थात् किंकर्तव्यमूढ़ है, जैसा कि पूर्व में कहा है // 158 // विवेचन : जिसका मन संप्रमुग्ध हैं; अनिश्चित अवस्था वाला है; वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता / ऐसे व्यक्तियों की उपयोग बिना की धर्मक्रिया को अननुष्ठान कहा हैं, क्योंकि अनाभोग-जिस में मन का कोई उपयोग ही नहीं; इहलोक या परलोक सम्बंधी विचार करने की शक्ति ही नहीं जिसमें; जिनका मन किंकर्तव्यमूढ है; विवेकबुद्धिरहित, मूढ प्राणी गतानुगति न्याय से, देखादेखी गड़रियां प्रवाह की भाँति किया अनुष्ठान करते हैं, परन्तु अध्यवसाय शुद्ध न होने से तथा क्रिया में उपयोग नहीं होने से वास्तव में वह अनुष्ठान ही नहीं होता / क्योंकि संप्रमुग्ध अर्थात्