________________ 100 योगबिंदु अर्थ : गुरु आदि की पूजारूप अनुष्ठान, अध्यवसाय की अपेक्षा से विष, गरल, अननुष्ठान, तदहेतु और अन्तिम अमृत (ये पांच प्रकार हैं ) // 155 // विवेचन : महापुरुषों ने गुरुभक्ति, देवपूजा, तप, जप, साधर्मिक वात्सल्य रूप आदि सभी अनुष्ठानों को अध्यवसायभेद से विष, गरल, अननुष्ठान, तद्हेतु और अमृत इन पांच भागों में बाँट दिया है। विष-क्रिया किसे कहते हैं, गरल क्रिया क्या होती हैं, अननुष्ठान तद्हेतु आदि सभी का विस्तृत विवेचन आगे किया गया है // 155 // विषं लब्ध्यारूपेक्षात इदं सच्चित्तमारणात् / महतोऽल्पार्थनाज्ज्ञेयं लधुत्वापादनात् तथा // 156 // अर्थ : आत्मा के शुद्ध अध्यवसायों का लब्ध्यादि की अपेक्षा से जो मारण विनाश हैं, वह अल्प लाभ के लिये महा प्रयास (जैसा) लघुता लाने वाला (पट) विष है // 156|| विवेचन : जगत में मेरा मान बढ़े, यश कीर्ति फैले, चमत्कार करने की शक्ति प्रकट हो और लोग मेरी आज्ञा अनुसार चले इत्यादि लब्धियों की प्राप्ति के लिये जो सेवा, पूजा, भक्ति, तप, जप आदि अनुष्ठान किये जाते हैं, उसे विषअनुष्ठान कहते हैं, वह भाव विष है। जैसे विष जीवित प्राणी के प्राणों को तात्कालिक नष्ट कर देता है, उसी प्रकार विषानुष्ठान आत्मा के परम शुद्ध अन्तःकरण को मलीन कर देता हैं। उसके शुद्ध अध्यवसायों का नाश करता है, जिससे उसके अनन्त जन्म-मरण बढ़ जाते हैं। ऐसा अनुष्ठान जीव की संसार वृद्धि का कारण बनता है तथा जिस तप, जप, व्रत, पच्चखाण आदि से आत्मा के शुद्ध परिणामों द्वारा बड़ा लाभ आत्मदर्शन, आत्मशुद्धि, कर्मनिर्जरा, मोक्षप्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार आदि प्राप्त होने वाला था; वह बाह्य सुख कीति लोक पूजादि रूप अत्यन्त तुच्छ क्षणिक, अशाश्वत लाभ प्राप्त करने की इच्छा करने से आत्मगुणों को हलका करने जैसा है। अर्थात् वह चिन्तामणिरत्न को छोड़कर, कंकर को ग्रहण करने जैसा है। ऐसी भावना से किया गया अनुष्ठान विष अनुष्ठान कहा जाता है। लोकेषणा, पुत्रेषणा और वित्तेषणा ये तीनों एषणाएँ मनुष्य के पतन का कारण बनती है। इसलिये महापुरुषों ने इन से दूर रहने की आज्ञा दी है // 156 // दिव्यभोगाभिलाषेण, गरमाहुर्मनीषिणः / एतद् विहितनीत्यैव कालान्तरनिपातनात् // 157 // अर्थ : देव सम्बंधी भोगों की अभिलाषा से जो धर्मानुष्ठान किये जाते हैं; वे आत्मा के शुद्ध परिणामों के नाशक और कालान्तर में (आत्मा के) अधःपतन का कारण होते हैं, इसलिये पण्डित लोग इसे गरल अनुष्ठान कहते हैं // 157|| अर्थात् दिव्यभोगों की अभिलाषा से किये गये धर्मानुष्ठान आत्मा के शुद्ध परिणामों को नाश