________________ योगबिंदु 99 परिवर्तन हो जाता है; आत्मा का मल सहज ही अल्प हो जाने से परमार्थभाव की योग्यता प्रगट होती है; शास्त्रविहित मोक्षस्वरूप के प्रति श्रद्धा पैदा होती है और विष, गरल आदि अनुष्ठानों को हेय समझ कर, उनका त्याग कर देता है। सभी धार्मिक देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप आदि अनुष्ठानों का लक्ष्य आत्मशुद्धि, कर्मनिर्जरा और मोक्ष होता है / संक्षेप में ग्रंथ कर्ता ने इस श्लोक में कौन से प्राणी चरमावर्त में हैं ? और कौन से अचरमावर्त में हैं ? उनके लक्षण बताये हैं / चरमावर्ती प्राणी को ही योग की प्राप्ति होती हैं / योग से तात्पर्य मोक्षलक्षी अध्यात्मयोग से हैं // 152 // एकमेव ह्यनुष्ठानं कर्तृभेदेन भिद्यते / सरुजेतरभेदेन भोजनादिगतं यथा // 153 // अर्थ : एक ही अनुष्ठान कर्ता भेद से भिन्न हो जाता है, जैसे भोजनादि रोगी और निरोगी भेद से भिन्न हो जाता है // 153 // विवेचन : एक ही प्रकार के देवपूजा, गुरुभक्ति, सार्मिक वात्सल्य, व्रत, पच्चखाण, तप, जप आदि धार्मिक अनुष्ठान बाह्यरूप से समान दिखाई देने पर भी कर्ता के अध्यवसाय-परिणाम, भावना, अभिप्राय के भेद से भिन्न हो जाते हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न फल देते हैं, क्योंकि "यादृशी भावना यस्य सिद्धि-र्भवति तादृशी" अनुष्ठान एक ही होता है लेकिन सभी लोग अपने-अपने अध्यवसाय-परिणामों की जैसी-जैसी शुद्धि-अशुद्धि होती है, वैसा-वैसा फल प्राप्त करते हैं। जैसे भोजन, असन, पान, मिष्टान आदि में तुष्टि पुष्टि देने की समानशक्ति होने पर भी, वह भोजन रोगी को दुःख कर अर्थात् रोग की वृद्धि का कारण बनता है और निरोगी स्वस्थ मनुष्य को शक्तिवर्धक और पुष्टिकारक सिद्ध होता है। दूध स्वस्थ व्यक्ति को शक्ति देता है परन्तु वही दुध अतिसार वाले को दुःखी करता हैं // 153 // इत्थं चैतद् यतः प्रोक्तं सामान्येनैव पञ्चधा / विषादिकमनुष्ठानं विचारेऽत्रैव योगिभिः // 154 // अर्थ : इस प्रकार (अध्यवसाय भेद से) योगियों ने यहाँ (योगबिन्दु ग्रंथ में) विषादि अनुष्ठानों को सामान्यरूप से पांच प्रकार का बताया हैं // 154 // विवेचन : (हमारे) योगवेत्ता आप्त पुरुषों ने इस योगबिन्दु ग्रंथ में अध्यवसाय (भावना के) भेद से इन अनुष्ठानों के सामान्य पांच भेद किये हैं। इन अध्यवसायों द्वारा ही मनुष्य की वास्तविक पहचान होती है कि वह चरमावर्ती है ? या अचरमावर्ती है ? कौन से अनुष्ठान हेय हैं ? कौन से उपादेय हैं ? इनका विस्तृत विवेचन ग्रंथकार ने आगे आने वाले श्लोकों में किया है // 15 // विषं गरोऽननुष्ठानं तहेतुरमृतं परम् / गुर्वादिपूजानुष्ठानमपेक्षादिविधानतः // 155 //