________________ 18 योगबिंदु विवेचन : आप्तपुरुषों ने विविध प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान बताये हैं / उनमें तीन प्रकार के जो विषादि अनुष्ठान मनुष्य सांसारिक धन सम्पति, वैभव विलास, यशकीर्ति आदि प्रलोभनों में आकर करता है और ओघप्रवाह से गतानुगतिक न्याय से करता है / उनकी धर्मक्रिया संमुच्छिम प्राणियों जैसी होती है, अर्थात् उनमें विवेक का अभाव होता है इसलिये बुद्धिमानों ने ऐसी धार्मिक क्रिया को अच्छा नहीं बताया है // 150 // इहामुत्रफलापेक्षा, भवाभिष्वङ्ग उच्यते / तथाऽनध्यवसायस्तु स्यादनाभोग इत्यपि // 151 // अर्थ : इहलोक और परलोक के फल की अपेक्षा को भवाभिष्वंग संसार की आसक्ति कहा है और अनध्यवसाय को अनाभोग कहते हैं // 151 / / विवेचन : इस लोक में सुख, सम्पत्ति, यशकीर्ति आदि की लालसा से तथा परलोक में इन्द्र, देवेन्द्र सम्बंधी भोगों की लालसा से किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों को महापुरुषों ने भवाभिष्वंग नाम दिया है। क्योंकि उस प्रकार की, की जानेवाली सभी धर्म क्रियाओं के पीछे संसार के प्रति राग-आसक्ति रही हुई है, इसलिये वह संसार को बढ़ाती है। अनध्यवसाय-अध्यवसाय जिसमें न हों अर्थात् विवेकविहीन देखा-देखी, गतानुगतिक न्याय से तथा ओघ प्रवाह से की जाने वाली धार्मिक क्रिया को महापुरुषों ने अनाभोग नाम दिया है / संमुच्छिम प्राणियों में जैसे मन नहीं होता उसी प्रकार इन संज्ञी जीवों की क्रियाओं में मन होने पर भी मन का कोई उपयोग नहीं होता है, इसलिये ऐसी अनाभोग क्रिया को केवल द्रव्यानुष्ठान कहते हैं, और इन अनुष्ठानों को उपादेय नहीं बताया गया है अपितु हेय कहा है // 151 // एतद्युक्तमनुष्ठानमन्यावर्तेषु तद्धृवम् / चरमे त्वन्यथा ज्ञेयं सहजाल्पमलत्वतः // 152 // अर्थ : उपर्युक्त (भवाभिष्वंग और अनाभोग) अनुष्ठान अन्य आवों में ही होता है। स्वभावतः ही (कर्म) मल अल्प रह जाने से चरमावर्त में तो इससे अन्यथा जानें // 152 // विवेचन : उपर्युक्त भवाभिष्वंग और अनाभोग आदि नाम से बताये गये धार्मिक अनुष्ठानों के मूल में संसार के प्रति तीव्र आसक्ति, प्रमाद और अज्ञानता होती है, इसलिये ऐसे संसारवर्धक धार्मिक अनुष्ठान चरमावर्त से अन्य आवर्तों में होते हैं / अर्थात् जीव जब चरमावर्त से अन्य आवर्ती में भ्रमण करता है तब उसके अध्यवसाय निम्नकोटी के होते हैं / कषायों का जोर होता है / मोक्ष के प्रति द्वेष होता है। संसार के पौगलिक सुखों को ही वह परम सुख समझता है / इसलिये उसके धार्मिक अनुष्ठान अशुद्ध होते हैं परन्तु अन्तिम पुद्गलपरावर्त में जीव की कर्मबंधन की योग्यता में