________________ योगबिंदु पाप लगता है / एकदा शबरी लोगों को मोरपंखों की जरूरत पड़ी; मोरपंख तपस्वियों के पास थे, परन्तु उनसे माँगने पर तपस्वियों ने देने के लिये इन्कार कर दिया / शबरियों के राजा को बहुत क्रोध आया और उसने अपने साथी भीलों को, तपस्वियों से मोरपंख लाने की आज्ञा फरमाई / परन्तु साथ में यह भी कहा कि उनके पाद को स्पर्श नहीं करना, ताकि महापाप न लगे। भीलों ने जाकर पैरों को छुये बिना तपस्वियों को मार दिया। अब ऐसे पादस्पर्श के निषेध का क्या उपयोग? जैसे वह व्यर्थ है वैसे ही महान् दोष वाला, जिसको मुक्ति में द्वेष है; जिसके मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और प्रमाद अशुभ योग क्षीण नहीं हुये; सम्यक् दर्शन के बिना वह चाहे कितनी ही कष्टदायी धर्मक्रिया कर ले, उसका कोई अर्थ नहीं, उपयोग नहीं / जैसे गुरु के चरण स्पर्श निषेधरूप गुण को सम्भालते हुये भी गुरु को मार देने के महान दोष के सामने वह नगण्य है, उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि रहित धर्म की सर्व क्रिया का कोई महत्त्व नहीं // 148 // गुर्वादिपूजनान्नेह तथा गुण उदाहृतः / मुक्त्यद्वेषाद् यथाऽत्यन्तं महापायनिवृत्तितः // 149 // अर्थ : यहाँ (पूर्व सेवा में) गुरु आदि के पूजन से (आप्त पुरुषों ने) इतना लाभ नहीं बताया (आप्तपुरुषों ने) जितना कि अत्यन्त महान् अनर्थ को दूर करने वाले मुक्ति के अद्वेष से बताया है // 149 // विवेचन : अध्यात्म योग के अंगरूप जो पूर्वसेवा-गुरूपूजनादि तथा मुक्ति-अद्वेष आदि को बताया है, उनमें ग्रंथकर्ता मुक्ति के अद्वेष को अधिक महत्त्वपूर्ण बताते हैं, क्योंकि मुक्ति का अद्वेष संसार-रूपी अनर्थ को दूर करता है। लेकिन जिसको मुक्ति आदि के प्रति द्वेष है, वह चाहे कितनी ही ऊची गुरु पूजन आदि धर्मक्रिया कर ले फिर भी वह क्रिया मोक्ष का कारण न होकर, संसारवृद्धि का ही कारण बनती हैं। क्योंकि मुक्ति का द्वेष ही संसार के प्रति उसके राग को प्रकट करता है। संसार बहुत बड़ा अनर्थ है, और संसार का राग तो संसार ही बढ़ाता है, घटाता नहीं है उसके दुःख का भी अन्त नहीं आता / इसलिये मुक्ति में अद्वेषपूर्वक, अर्थात् प्रेम पूर्वक की गई गुरु धर्म आदि की आराधना ही कल्याण करने वाली है, अन्य नहीं // 149 / / भवाभिष्वङ्गभावेन तथाऽनाभोगयोगतः / / साध्वनुष्ठानमेवाहु तान् भेदान् विपश्चितः // 150 // अर्थ : बुद्धिमानों ने भवाभिष्वंग भाव से (संसार की आसक्ति से) तथा अनाभोग (विवेकहीन) योग से (किये जाने वाले) इन भेदों को (आगे बताये जाने वाले विषादि तीन प्रकार के अनुष्ठानों को) सदनुष्ठान नहीं कहा है // 150||