________________ 96 योगबिंदु कल्याण-मोक्ष को प्राप्त करने के लिये भाग्यशाली होते हैं / मोक्ष की श्रद्धा बिना सर्वधर्म किया गोबर पर लिंपन जैसा है श्री आनन्दघनजी ने भगवान अनन्तनाथजी के स्तवन में कहा है : शुद्ध श्रद्धान विन सर्व किरिया करी छार पर लीपनु तेह जानो। कदाचित किसी परिस्थितिवश कुछ त्याग न कर सके परन्तु श्रद्धा तो हमेशा मनुष्य को दीपक के समान मार्गदर्शक है, उससे मनुष्य मार्ग भूलता नहीं, मार्ग से भटकता नहीं // 146 // येषामेवं न मुक्त्यादौ द्वेषो गुर्वादिपूजनम् / त एव चारु कुर्वन्ति नान्ये तद्गुरुदोषतः // 147 // अर्थ : जिनको मुक्ति आदि में द्वेष नहीं अर्थात् प्रेम है वे गुरु आदि का विधिपूर्वक पूजन करते हैं (मुक्तिद्वेषरूप) महादोष वाले अन्य नहीं // 147 // विवेचन : मुक्ति आदि शब्द से मुक्त, मुक्तिमार्ग तथा तत् सम्बंधी शास्त्र के प्रति जिनको द्वेष नहीं, अर्थात् उनके प्रति प्रेम है; वे ही सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की सेवा भक्ति, पूजा, आराधना आदि वास्तविक, संपूर्ण, शुद्ध हृदय से विधिपूर्वक करते हैं। ऐसे चरमावर्ती भव्य जीवों को ही वास्तविक अध्यात्म की प्राप्ति होती है / लेकिन जिनको मुक्ति, मुक्त, मुक्तिमार्ग, मुक्ति सम्बंधी शास्त्रों के प्रति द्वेष है; अरुचि है, ऐसे महान दोष वाले प्राणी, अभी अन्तिम परावर्त से बहुत दूर हैं / इसलिये उनको योग की प्राप्ति नहीं हो सकती। जिनको मुक्ति आदि के प्रति अनादर है, वे बाह्यरूप से चाहे कितनी ही उत्कृष्ट क्रिया करें, लेकिन मुक्ति आदि में अनादर रूप भयंकर दोष होने से, अपने संसार को ही बढ़ाते हैं / उनकी बाह्य क्रिया का कोई महत्त्व नहीं होता // 147 // सच्चेष्टितमपि स्तोकं गुरुदोषवतो न तत् / भौतहन्तुर्यथाऽन्यत्र पादस्पर्शनिषेधनम् // 148 // अर्थ : महान् दोष वाले का थोड़ा सा भी सदनुष्ठान भौतहन्ता के पादस्पर्श के निषेध की भाति व्यर्थ है (उसका कोई अर्थ नहीं) // 148 // विवेचन : महान अपराधी कभी थोड़ा सा अच्छा काम भी कर ले, तो भी उसकी कोई कीमत नहीं होती / वह भौतहन्ता के पादस्पर्श के निषेध की भांति बिल्कुल अर्थहीन है। इस दृष्टान्त में एक छोटी सी कहानी निहित है / जंगल में शबरी लोग और तपस्वी भी रहते थे। तपस्वियों के मुख से शबरी लोगों ने सुना था कि जो गुरु हमारे पूजनीय है; आदरणीय हैं; उनके चरणों का मारने की बुद्धि से स्पर्श नहीं करना चाहिये / मारने की बुद्धि से उनके चरणस्पर्श करने से महान्