________________ योगबिंदु अर्थ : ग्रैवेयक देवलोक की प्राप्ति भी, इस प्रकार परिणाम के विमर्श-विचार से, श्लाघ्य नहीं है जैसे कि अन्याय से उपार्जित सम्पत्ति परिणाम में दुःखदायी होती है // 145 // विवेचन : सम्यक्त्व के बिना केवल धन-सम्पत्ति, वैभवविलास, यशकीर्ति आदि भौतिक सुखों के लोभ से की गई आराधना, तप, जपादि-धर्मानुष्ठान आदि से मनुष्य कभी सबसे ऊँचे स्वर्ग ग्रैवेयक की प्राप्ति भी कर ले, फिर भी महापुरुषों ने उसे सराहनीय नहीं कहा है, क्योंकि उसका परिणाम-अन्त दुःखदायी है / जैसे अन्याय, जीवहिंसा, चोरी, जुआ, व्यभिचार, विश्वासघात, स्वामीद्रोह से कभी मनुष्य धनवान बन भी जाय; सम्पत्तिशाली बन भी जाय फिर भी वह निन्दनीय है और उसका परिणाम दुर्गति की प्राप्ति है क्योंकि अन्याय से प्राप्त धन रौद्रध्यान मूलक होने से दुर्गति में ले जाता है / इस लोक में वह भले ही मौज-मजा ले ले, परन्तु अन्त में उसके दुष्कृत्य उसे दुर्गति रूप दुःख के गड्ढे में डाल देते हैं / इसी प्रकार अभव्य, भवाभिनन्दी प्राणी सम्क्त्व श्रद्धा से विहीन होते है। इसलिये उनका ऊचे से ऊचा धर्मानुष्ठान भी अधिक से अधिक ग्रैवेयक नामक स्वर्ग की प्राप्ति करवा देता है। परन्तु जब उनका पुण्य समाप्त हो जाता है तब पुन: वे अपने दुष्कर्मों से नरक, निगोद, वनस्पतिरूप दुःखदायी योनियों में आ गिरते हैं / जब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती, मनुष्य मोक्ष में नहीं जा सकता / इतने ऊँचे देवलोक में जा कर भी वह वापिस उसी दुःखमय संसार सागर में आ कर भटकता है। परिणाम भयंकर होने से महापुरुषों ने समकित रहित क्रिया को हेय और निन्दनीय कहा हैं / श्रीदेवचन्द्रजी ने समकित की सज्झाय में सुन्दर कहा है / समकित नवि लह्यं रे, ऐ तो रूल्यो चतुर्गति मांहि // मोक्ष के प्रति अश्रद्धाशील जीवों को पापानुबंधी पुण्य से कदाचित ऊँचा देवलोक ग्रैवेयक मिल भी जाय परन्तु मोक्ष का जो उपादान कारण समकित की प्राप्ति है, वह उसे प्राप्त नहीं होती। इसीलिये उनका संसार चक्र चालू रहता है / कोल्हू के बैल की भांति परिणाम कुछ नहीं आता और परिश्रम व्यर्थ जाता है / इतने कायक्लेश-देहिक कष्ट सहन करने पर भी अगर दृष्टि निर्मल नहीं, तो उसकी कोई कीमत नहीं // 145 // अनेनापि प्रकारेण द्वेषाभावोऽत्र तत्त्वतः / हितस्तु यत् तदेतेऽपि तथा कल्याणभागिनः // 146 // अर्थ : इस प्रकार से यहाँ (मोक्ष में) द्वेष का अभाव ही वास्तविक (मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिये) हेतु कारक है (द्रव्य क्रिया नहीं), ऐसे लोग ही कल्याण के भागी होते हैं // 146 // विवेचन : इस प्रकार मोक्ष में द्वेष का अभाव अर्थात् मोक्ष की श्रद्धा ही चारित्रशुद्धि का वास्तविक कारण है, द्रव्य क्रिया नहीं / जो मोक्ष में संपूर्ण श्रद्धा रखते हैं, वे ही चारित्रशुद्धि द्वारा