________________ योगबिंदु देने वाले योगीन्द्रों पर जिनको प्रकृष्ट द्वेष-तिरस्कार होता है, वे महा भयंकर, मोह रूप मिथ्यात्व, अविरति, कषाय के अशुभयोगों में इतने डूबे हुये होते हैं कि उनकी मति-बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। उनकी बुद्धि उल्टी होने से उनकी प्रवृत्ति भी अशुभ, अकल्याणकारी होती है। शुभ कल्याणकारी कार्य करने का उनका मन ही नहीं होता / ऐसे लोगों का परमपुरुषार्थ मोक्ष में ऐसा द्वेष अनन्त संसारवृद्धि का कारण होता है / मोहमाया और अशुभयोगों से भान भूले हुये मनुष्य की यह मानसिक स्थिति है / ऐसा व्यक्ति अपनी अज्ञानता से अनन्तसंसार को बढ़ा लेता है, अतः मुक्तिद्वेष अज्ञानतामूलक है / जिस व्यक्ति को अपने स्वरूप का भान हो जाता है उसे कभी ऐसा नहीं होता। अत्यन्त गाढ़ अथवा मिथ्यात्वरूप मोहमाया में फंसे हुये, अपना भान भूले हुये, और अशुभ कार्यों में ही निमग्न रहने वाले अज्ञानी मनुष्यों को, परम पुरुषार्थ मोक्ष में ऐसा द्वेष होता है / उनका द्वेष अनन्त संसार को बढ़ाने वाला होता है। अतः उनका मुक्तिद्वेष अज्ञानमूलक है / आत्मस्वरूप को जानने वाले दोषों से रहित पुरुषों को ऐसा द्वेष नहीं होता। ऐसे अशुभ अध्यवसायों से संसार बढ़ता है // 139 // नास्ति येषामयं तत्र तेऽपि धन्याः प्रकीर्तिताः / भवबीजपरित्यागात् तथा कल्याणभागिनः // 140 // अर्थ : जिनको वहाँ (मुक्ति में) द्वेष नहीं, वे धन्य हैं तथा भवबीज (रागद्वेषादि) के परित्याग से कल्याण के भागी हैं // 140 // विवेचन : जिन आत्माओं का संसार अर्धपुद्गलपरावर्त से भी कम शेष हो अथवा दो, तीन संख्याता भव में मोक्ष जाने वाले ऐसे जीवों को ही मोक्ष में द्वेष नहीं होता / उनको तो मोक्ष का उपदेश सुनते ही और उसका स्वरूप समझते ही मोक्ष और मोक्ष के साधनरूप योग क्रिया-अनुष्ठान पर अत्यन्त प्रीति पैदा होती है। ऐसे भव्य जीवों को धन्य कहा हैं क्योंकि वे भवबीज-रागद्वेषादि दोषों को सर्वथा क्षीण करके, तीर्थंकरादि पद प्राप्ति द्वारा मोक्षरूप-कल्याण के अधिकारी होते हैं // 140 // सज्ज्ञानादिश्च यो मुक्तरुपायः समुदाहृतः / मलनायैव तत्रापि न चेष्टैषां प्रवर्तते // 141 // अर्थ : सम्यक् ज्ञानादि जो मुक्ति का उपाय कहा है, उनके विनाश के लिये इनकी (भव्यजीवों की) चेष्टा नहीं होती // 141 // विवेचन : “सम्यक दर्शन ज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः", जैनसिद्धान्तों में हमारे आप्तपुरुषों ने मुक्ति का यह उपाय बताया है / मुक्ति के प्रति जिनको द्वेष नहीं, ऐसी भव्यात्माओं को मन,