________________ योगबिंदु यदि तत्र नास्ति सिमन्तनीका मनोहरप्रियंगुवर्णी / तस्मात् रे सिद्धान्तिक ! बन्धनं मोक्षो न स मोक्षः // अगर वहां प्रियंगु वर्णी स्त्रियों का समागम न हो तो सर्वकर्म अभावरूप, जैन सिद्धान्तानुसार माना हुआ वह मोक्ष, वास्तविक मोक्ष नहीं अपितु बन्धन है, कैदखाना है। विषयमार्गों में अत्यन्त आसक्त गिद्ध प्रकृति वाले मूर्ख पण्डितों की यह मान्यता और उनके ये आलाप, नित्य परमात्मा के ध्यान में रहने वाले महर्षियों को कान में सुनना भी पसन्द नहीं, क्योंकि बाह्यविषयों में अत्यन्त आसक्त और यथार्थ सत्यबोध से वञ्चित प्राणियों की यह दशा दयनीय है // 137|| वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्ठत्वमाभिवाञ्छितम् / न त्वेवाविषयो मोक्षः कदाचिदपि गौतम // 138 // अर्थ : रमणीय वृन्दावन में श्रृंगाल(सियार) का अवतार लेना इष्ट है, परन्तु हे गौतम ! अविषय मोक्ष तो कदापि भी वाञ्छनीय नहीं // 138 // विवेचन : यमुना नदी के किनारे सुन्दर ऐसे वृन्दावन में श्रृंगाल(सियार) का अवतार लेना अच्छा है; क्योंकि वहाँ सुन्दर युवती गोपालकों का मुख देखने को मिले; उनकी सुन्दर क्रीडा, संगीत आदि सब सुनने को मिले, इसलिये वहाँ पर श्रृगाल का जन्म भी मिल जाय तो हरकत नहीं परन्तु जहां कोई विषयभोग नहीं, संगीत, वस्र, भूषण, नाटक, नृत्य आदि मन को उल्लसित करने वाला कुछ नहीं, देखने-सुनने को इन्द्रियजन्य विषय नहीं, कोई हलन-चलन नहीं, ऐसे मोक्ष की प्राप्ति किसी भी अवस्था में वाञ्छनीय नहीं / गालवऋषि अपने शिष्य गौतम को सम्बोधित करके उपरोक्त बात कहते हैं // 138 // महामोहाभिभूतानामेवं द्वेषोऽत्र जायते / अकल्याणवतां पुंसां तथा संसारवर्धनः // 139 // अर्थ : महामोह से अभिभूत पीड़ित तथा अशुभप्रवृत्ति करने वाले मनुष्यों को यहां (मोक्ष और मोक्ष के साधनरूप योग के सम्बन्ध में) ऐसा (उपरोक्त) द्वेष होता है, जो उनकी संसार वृद्धि का हेतु हैं / अथवा महामोह से घिरे हुये, अशुभ प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को यहाँ (मोक्ष में), ऐसा संसार को बढ़ाने वाला द्वेष होता है // 139 // विवेचन : मोक्ष तथा उसके साधन योगरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर तथा योग का उपदेश