________________ योगबिंदु अर्थ : संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर, भोग और क्लेश से रहित (ऐसी) मुक्ति प्राप्त होती है (लेकिन) भवाभिनन्दी प्राणियों को इसमें (मुक्ति में) द्वेष (होता है वह) अज्ञान मूलक है // 136 / / विवेचन : जब ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि संपूर्ण आठ कर्मों का क्षय हो जाता है। जब आत्मा संपूर्ण कर्म मल से मुक्त होकर सच्चिदानन्द का अनुभव करती है तब वह मुक्ति को प्राप्त करती है / मुक्ति में न तो पुण्य प्रकृति जन्य सुखभोग होते हैं और न ही पापजन्य क्लेश होते हैं, क्योंकि पुण्य और पाप दोनों ही संसार-वृद्धि के कारण है / भोग याने रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द के अनुकूल विषयों को भोगने का साधन; इन्द्रियाँ और भोग्य पदार्थ जो कञ्चन, कामिनी, महल, शय्या, अनुकूल खाद्य पदार्थ, वस्त्र आदि अज्ञानी आत्मा को प्रिय है; उसका लाभ लेना अच्छा लगता है और क्लेश का कारण रोग, शोक, दरिद्रता, असौभाग्य, अदृष्ट कल्याणता, नरक उत्पत्ति, दास्यभाव आदि आत्मा को अनिष्ट लगते हैं, बुरे लगते हैं / पुण्य के भोग सुखकारी होने पर भी संसार के बन्धन में कारण होने से दुःखकारी कारण है और क्लिष्ट कर्म क्लेश का कारण होने से, दोनों ही त्याज्य हैं / मोक्षावस्था में (सुख के कारणभूत अनुकूल भोग और प्रत्यक्ष दुःख-क्लेशों) उनका सर्वथा अभाव होता है / मुमुक्षु, सुख और दुःख, पुण्य और पाप को बन्धन कारक समझकर दोनों को छोड़ना चाहता है, परन्तु भवाभिनन्दी जीवों को असार संसार के कृत्रिम सुखों पर ही आसक्ति होती है और वे उसी में ही आनन्द मानते हैं इसलिये शरीर, मन और इन्द्रियों के बाह्य भोग में रत होने से (शाश्वत् सुख देने वाली) मुक्ति में वे लोग द्वेष करते हैं / उनका द्वेष अज्ञान मूलक है। मिथ्यात्वरूप अन्धकार गाढ़ होने के कारण वस्तुस्वरूप को यथार्थ समझने में वे असमर्थ होते हैं। मोक्ष का वास्तविक स्वरूप वे समझते नहीं, यही कारण है अन्यथा स्वभाव ही से सुन्दर वस्तु में विद्वान् को जरा भी द्वेष करने का कारण नहीं // 136 / / श्रूयन्ते चैतदालापा लोके तावदशोभनाः / शास्रेष्वपि हि मूढानामश्रोतव्याः सदा सताम् // 137 // अर्थ : लोक में तथा (लौकिक) शास्रों में मूढजनों के ऐसे अशोभनीय आलाप (मुक्तिद्वेषजनक वचन) सुने जाते हैं जो कि सज्जन-सन्तपुरुषों को तो सुनने के योग्य भी नहीं होते // 137|| विवेचन : लोक में तथा स्मृति, पुराण आदि लौकिक शास्रों में भी, कुछ मूढजनों ने यानी तत्त्व के प्रति व्यामोह रखने वाले मूर्खजनों ने सज्जनों के मुख पर न शोभे ऐसी गन्दी अशोभनीय बकवास की है कि सन्तपुरुषों को, ऋषियों को तो उसे सुनना भी पसन्द नहीं / जैसे - जइ तत्थ नत्थि सीमंतिणीओ मणहरपियंगुवन्नाओ / ता रे सिद्धान्तिय ! बन्धणं खु मोक्खो न सो मोक्खो //