________________ योगबिंदु मृत्युञ्जय कहते हैं / क्योंकि भावपूर्वक किया गया पंचपरमेष्टि नमस्कार, मृत्यु को जीतने वाला होता है। ऐसा पंचपरमेष्ठी का जाप करते हुये; शारीरिक, मानसिक और वचनशुद्धि पूर्वक; विषय कषायों से रहित; मन में किसी भी प्रकार की लोक-प्रशंसा का भाव न रखकर; केवल आत्मशुद्धि का लक्ष्य रखकर, विधिपूर्वक जो मासक्षमण किया जाता है। तप है धन जिनका ऐसे, तपोधनी-तपोयोगी उसे मृत्युघ्न तप कहते हैं / मृत्युघ्न-मृत्यु का हनन करने वाला तप // 134 / / पापसूदनमप्येवं, तत्तत्पापाद्यपेक्षया / चित्रमन्त्रजपप्रायं, प्रत्यापत्तिविशोधितम् // 135 // अर्थ : विचित्र पापों के कारण, प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होने वाला, नाना प्रकार के मन्त्रों का जाप है जिसमें, ऐसा पापसूदन तप भी होता है // 135 / / विवेचन : मृत्युघ्न तप की भांति पापसूदन तप भी शुद्धिपूर्वक योग्य विधि से करना चाहिये। अज्ञानी मनुष्य जीवन में न करने जैसे कार्य करके विविध प्रकार के पापों को इकठ्ठा करता है, परन्तु कभी सत्संग का योग मिल जाय तो विवेक प्रकट होने पर उसे अपने दुष्ट कृत्यों पर बहुत पश्चात्ताप होता है। उन पापों का नाश करने के लिये हमारे आप्त पुरुषों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के तप बताये हैं / भिन्न-भिन्न प्रकार के मन्त्रों का जाप बताया है जिससे व्यक्ति पापों से हलका होकर शुद्ध हो जाता है। जैसे कि आगमों में इसका दृष्टान्त दिया है कि : __ मथुरा में सत्ता के मद में आकर, एक नवयुवक ने वृद्ध तपस्वी ढंढक मुनि को शस्त्र से मरवा दिया, परन्तु बाद में शकेन्द्र के उपदेश से, विवेक जागने पर उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ / संसार से वह इतना उदासीन हो गया कि उसने दीक्षा ले ली और संन्यास लेकर यह अभिग्रह किया कि जब तक मुनि हत्या की स्मृति रहेगी मैं अन्न-जल कुछ ग्रहण नहीं करूँगा / उनका यह तप छ: महीने तक चला। छ: महीने तक अप्रमत्त होकर, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना करते रहे; बिना अन्न जल लिये / इस प्रकार उन्होंने जो ऋषिघात का पाप बांधा था वह नष्ट हुआ। तब से लोक में इस पापसूदनतप की प्रवृत्ति चली। तपशास्त्र एक स्वतन्त्र शास्त्र है उसमें महापुरुषों ने पापक्षय के लिये विविध तपों की व्याख्या की है / इस प्रकार से तप करते हुये आत्मा विशेष शुद्ध हो जाती है // 135 // पूर्वसेवा में अन्तिम, मुक्ति में अद्वेष को अब कहते है: कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्ति गसंक्लेशवर्जिता। भवाभिनन्दिनामस्यां द्वेषोऽज्ञाननिबन्धनः // 136 //