________________ 88 योगबिंदु चान्द्रायणतप एक महीने का तप है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से एक-एक कवल बढ़ा कर पूनम के दिन 15 कवल तक पहुँच जाना और कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से एक से एक-एक कवल कम करते-करते अमावास्या के दिन बिल्कुल भोजन का त्याग करना अर्थात् उपवास करना; यह चान्द्रायण तप की विधि हैं / जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्र की कला बढ़े, वैसे कवल-ग्रास की संख्या बढ़ाना और कृष्णपक्ष में चन्द्र की कला घटती है वैसे कवलसंख्या घटाना, इस प्रकार चन्द्र की कला के ऊपर से यह तप चान्द्रायणतप कहा जाता है // 132 / / सन्तापनादिभेदेन, कृच्छ्मुक्तमनेकधा / अकृच्छादतिकृच्छ्रेषु, हन्त ! सन्तारणं परम् // 133 // अर्थ : संतापनादि के भेद से कृच्छ्र (तप) अनेक प्रकार का बताया है। अकृच्छ्र (तप) से अतिकृच्छ्र में विशेष शुद्धि है // 133 / / विवेचन : संतापनकृच्छ्, संपूर्णकृच्छ्, पादकृच्छु, अतिकृच्छ्र, सन्तारणकृच्छू, इस प्रकार कृच्छ्रतप के अनेक भेद होते हैं / सन्तापन, पाद और संपूर्ण कृच्छ्र इनमें मुख्य हैं / संतापन कृच्छ्र की विधि बताई है : तीन दिन गर्म जल पीना; तत्पश्चात् तीन दिन गर्म घी पीना; उसके बाद तीन दिन गर्म मूत्र पीना; सबसे अन्त में तीन दिन गर्म दूध पीना / यह संतापन कृच्छ्र की विधि हैं / एक बार और वह भी बिना मांगे कोई दाता भोजन करवाये तत्पश्चात् उपवास करना यह पादकृच्छ्रतप की विधि है / इसी पादकृच्छ्र को चार बार करने से संपूर्णकृच्छ्र तप होता है / संतापनकृच्छतप के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं, कुछ लोग मानते हैं कि कष्टपूर्ण तप होने से इसे संतापनकृच्छ्र कहते हैं, कुछ कहते है कि स्वर्ण की भांति शुद्ध करता है इसलिये इसे संतापन कहते हैं। इस प्रकार पापों का नाश करने वाले विविध तपों का वर्णन पुराण, स्मृति आदि शास्रों में विस्तार पूर्वक किया गया है // 133 // मासोपवासमित्याहुर्मृत्युजं तु तपोधनाः / मृत्युञ्जयजपोपेतं परिशुद्धं विधानतः // 134 // अर्थ : मृत्युञ्जय जाप सहित; शुद्ध होकर, विधिपूर्वक जो मासक्षमण (एक मास के उपवास) तप किया जाता है; उसे तपोधनी मुनि मृत्युघ्न तप कहते हैं // 134 // विवेचन : पंचपरमेष्ठि नमस्कार रूप मृत्युञ्जय जाप सहित अर्थात् पंचपरमेष्ठि नमस्कार को