________________ 85 योगबिंदु में लाना चाहिये / सर्वत्र निन्दा का त्याग; गुणों की प्रशंसा, हर हालत में सुख-दुःख में समभाव से रहना भी सदाचार है / सज्जनों का आचार है, सदाचारी के लक्षण है // 127 / / प्रस्तावे मितभाषित्वमविसंवादनं तथा / प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् // 128 // अर्थ : प्रसंग आने पर मितभाषण, सत्यपालन, प्रतिज्ञा पालन और कुलधर्म का पालन करना (भी सदाचार है) // 128 // विवेचन : अगर बोलने का प्रसंग आ जाय तो आवश्यकतानुसार, समयोचित मितभाषण करना; व्यर्थ वितण्डावाद, झगड़े में न उतरना, प्रमाण सहित, मीठी भाषा में और जिसमें अपना भी हित हो और दूसरे का भी कल्याण हो ऐसा अल्प, परन्तु वजनदार बोलना चाहिये / विसंवादी वचन नहीं बोलना; अर्थात् मन में कुछ, वचन में कुछ और आचरण में कुछ हो, ऐसा मन, वचन और काया में कहीं मेल न खाय, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिये / सत्य, मिष्ट और हितकारक ही बोलना चाहिये / जिन प्रतिज्ञाओं को, वचनों को, व्रत-पच्चखाणों को हम पाल सकें, उनका ही पच्चखाण प्रतिज्ञा लेनी चाहिये / और फिर उसे संपूर्ण निभाना चाहिये / कुलधर्म अर्थात् पिता, प्रपिता की परम्परागत जो कुल की मान्यता चली आती है, उसे कुलधर्म कहते हैं जैसे कुलदेवी का पूजन, पूर्वजों का पूजन, पुत्र-पुत्रियों के धर्म संस्कार करने आदि धर्मानुकूल जो कुलधर्म हैं, उनका पालन करना चाहिये // 128 // असद्व्ययपरित्यागः, स्थाने चैतक्रिया सदा / प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् // 129 // अर्थ : धन का दुर्व्यय नहीं करना (चाहिये), लेकिन योग्य स्थान पर और प्रधान कार्य में व्यय करने का आग्रह हमेशा रखना (चाहिये) और प्रमाद का त्याग करना (चाहिये) // 129 // विवेचन : लक्ष्मी का दुर्व्यय न करें; पुण्य से प्राप्त लक्ष्मी-धन का उपयोग पापमय आस्रव स्थानों में; अनर्थदण्ड में नहीं करना चाहिये, क्योंकि जहाँ अनुपयोगी - आवश्यकता न हो वहाँ तथा पापमय मार्गों में धन का उपयोग करना धन का दुर्व्यय है / परन्तु देवस्थान, तीर्थ, गुरुभक्ति, साधर्मिकभक्ति आदि योग्य पवित्र स्थानों पर तथा प्रधान-मुख्य जो पुरुषार्थ मोक्ष है, उस कार्य में धन का सद्व्यय करने का हमेशा आग्रह रखना चाहिये / और इसी तरह सभी प्रकार के प्रमाद अर्थात् अविवेक को पैदा करने वाले पदार्थ मदिरापान, मांस-भक्षण, जुआ, व्यभिचार आदि सात व्यसनों का त्याग करना चाहिये / नींद और आलस का भी त्याग करना चाहिये // 129 // लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रौचित्यपालनम् / प्रवृत्तिर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि // 130 //